हिन्दी की बेहतरीन ग़ज़लें -
हिन्दी में हम सब जो ग़ज़लें लिख रहे हैं वह देवनागरी लिपि में लिखी जानेवाली 'हिन्दुस्तानी ग़ज़लें' हैं। यही हमारी हिन्दी भाषा भी है और यही हिन्दी ग़जल की भाषा भी। शुद्ध हिन्दी या अति हिन्दी, ग़जल के मिज़ाज और ग़ज़लियत को भंग कर देती है। शुद्ध हिन्दी में जब उपन्यास और कहानियाँ नहीं लिखी जा रहीं तो ग़ज़लें क्यों लिखी जायें— यह प्रश्न अहम है।
हमारे पास सारे उपकरण उर्दू ग़ज़ल के हैं। यानी, हिन्दी ग़ज़ल को थाली में परोसा हुआ मुहावरा, शास्त्रीयत रवायत, जदीदियत मिल गयी। यही सबसे बड़ी चुनौती भी है। उर्दू ज़बान की जदीद से जदीदतर ग़ज़लों के बरअक्स हम हिन्दी में कैसे ग़ज़लें लिखें कि वो मिज़ाज से सम्पन्न हों, उसमें ग़ज़लियत हो और वो उर्दू ग़ज़ल के प्रभाव से मुक्त भी हों। अनुभूति और अभिव्यक्ति (अन्दाज़े-बयाँ) ये दो तत्त्व, गुण ज़्यादा प्रतीत होते हैं। इनके अतिरिक्त, अनुभवों की पुनर्रचना और चिन्तन पक्ष की भी हम अनदेखी नहीं कर सकते। हिन्दी ग़ज़ल में जो सपाटबयानी और स्थूलता का समावेश हुआ है, उसके पीछे बड़ा कारण चिन्तनहीनता और अनुभवों को जल्दबाज़ी में व्यक्त करने का है। हमारे पास प्रत्येक शेर में दो मिसरे (बहर के अनुशासन में बँधे हुए) होते हैं और उन मिसरों में हमें अपना विचार न सिर्फ़ व्यक्त करना होता है बल्कि उसे इतनी सलाहियत और गहरी संवेदना और आन्तरिक लय के साथ प्रस्तुत करना होता है कि शब्दों की यात्रा ज्यों-ज्यों अर्थ तक पहुँचे, गूँज-सी पैदा होती चली जाये।
इस संकलन की ग़ज़लें, नये समय और नये समाज की ऐसी ग़ज़लें हैं जिनमें नये मनुष्य के द्वन्द्व, सरोकार, कशमकश, सम्बन्धों के बेचैन करते मंज़र महसूस होते हैं। फ़िराक़ गोरखपुरी ने कहा है– 'तमदुन के क़दीम अक़दार बदले, आदमी बदला।' यानी युग बदला है सोच बदली है, और मनुष्य भी बदला है। ये ग़ज़लें उस बदलते हुए समय के अनुभवों की गूँज पैदा करती हैं।
— ज्ञानप्रकाश विवेक
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