रामदरश मिश्र का नया उपन्यास 'दूसरा घर' लेखक के जीवन और रचनात्मक विकास के कुछ नये बिन्दुओं को छूता है । यह ऐसे लोगों की कहानी है जो अपने गाँवों की ज़मीन से उखड़कर भी उखड़ नहीं पाते और विराट औद्योगिक नगर की ज़मीन में जमकर भी जम नहीं पाते। सम्बन्धों के अनेक सूत्र इन्हें गाँव से बाँधे हुए हैं। कभी-कभी इनके घर की गरीबी के विषाद की छाया इनके अहमदाबाद के जीवन पर कुछ इस कदर पड़ने लगती है कि वह उनके अस्तित्व के लिए एक ख़तरा बन जाती है। उससे बचने निकलने का उन्हें कोई रास्ता नहीं मिलता। तो कभी औद्योगिक नगर की नयी स्थितियों और खासतौर से महाजनी सभ्यता से जुड़े नैतिक विघटन के साथ समझौता करने में असमर्थ वे जीवन-यापन की सामान्य सुविधाएँ भी नहीं जुटा पाते। ऐसे में उनका जीवन असफलता का एक अन्तहीन सिलसिला बनकर रह जाता है। लेकिन क़दम क़दम पर लड़खड़ाते गिरते हुए इन लोगों की विशेषता यह है कि असफल हो जाने के बावजूद ये कभी पराजय नहीं स्वीकार करते। घर और दूसरे घर के दो बिन्दुओं के बीच के तनाव के साथ आज की व्यवस्था की अनेक असंगतियाँ वर्गीय स्वार्थों की अनेक अन्धी भूलभुलैया, भाषा, प्रदेशवाद, साम्प्रदायिकता और वैयक्तिकता की गहरी खाइयाँ हैं जो इन लोगों के जीवन-संघर्ष को और भी अधिक जटिल और पेचीदा बनाती हैं। प्रस्तुत उपन्यास में मिश्रजी ने इन सारी स्थितियों को अनुभव के स्तर पर उभारा है और बौद्धिक स्तर पर इनके मूल चरित्र को समझने का प्रयत्न किया है। लेखक के चिन्तन के केन्द्र में वंचित और अभावग्रस्त मनुष्य है जिसे रात-दिन के कठोर परिश्रम के बाद भी दो जून की रोटी मयस्सर नहीं होती।
- डॉ. महावीर सिंह चौहान
Log In To Add/edit Rating
You Have To Buy The Product To Give A Review