ईश्वर - अल्लाह असग़र वजाहत द्वारा लिखित नाटक है जो मनुष्य होना सर्वोपरि है' के शाश्वत विचार को लेकर चलता है। नाटक द्वारा वे इस बात की पड़ताल करते हैं कि समाज का एक छोटा-सा अंग भी असहिष्णुता का बीज किसी के मन में बो सकता है। लेकिन मुद्दा यह है कि हमारा समाज ऐसे बीजों को विचार का खाद-पानी डाल उसे पोषित ही क्यों करता है? उन ताक़तों की पहचान ज़रूरी है जो ऐसी विद्रूप भंगिमाओं को समाज में अपने अस्तित्व को स्थापित करने में मदद करती हैं। यह नाटक ऐसी घातक प्रविधियों और उनकी तात्कालिक प्रतिक्रियाओं की पड़ताल करता है ताकि मनुष्य को हिंसक बनाये रखने के इस सतत षड्यन्त्र को समझा जा सके ।
यह नाटक ऐसे समाज को भी प्रश्नांकित करता है जो उज्जड़ है, जो इन्सान का इन्सान से भेद करता | मनुष्यता पर प्रश्न खड़े करता है कि जब मनुष्य को मनुष्य होने का अर्थ ही न मालूम हो तो वे अध्यात्म की पवित्रता और उसके मौलिक स्वरूप की संरचना को किस तरह समझ सकता है?
जाति और धर्म के आधार पर मनुष्य को मनुष्य 'से अलग करना, ऊँच-नीच का भेद करना न ही कोई ईश्वर सिखाता है और न ही कोई अल्लाह । बौद्धिकता और ऐतिहासिक चेतना से विहीन लोगों का कोई छोटा और धूर्त समूह अपने निजी और तात्कालिक लाभों के लिए धर्म की मनमानी और उसकी आक्रामक व्याख्या करता है। चूँकि शेष समाज अपने विकासक्रम में है तो वह इस तरह की व्याख्याओं को सच मानकर अन्धानुकरण में राजनीति का शिकार हो जाता है और यही सोचता रहता है कि वह एक धार्मिक और आध्यात्मिक कार्य कर रहा है।
Log In To Add/edit Rating
You Have To Buy The Product To Give A Review