राम सिंह फ़रार ऐसे दौर की कहानी है जब दिल्ली के प्रेस क्लब में नीम की पत्तियाँ डर-डर कर खो-खो खेलती हैं, बीयर की बोतलों का उफान गरदन तक आते-आते परास्त हो जाता है और कॉपी के प्यालों में झाग चित्त पड़ा रहता है। यह पराक्रम की कथाएँ कहने और उन पर गर्व करने का दौर है। ऐसे दौर में प्रेम के लिए जगह कम पड़ गई है। चाहे दिल्ली हो, कैरना हो या सल्ला हरतोला, यहाँ प्रेम धरती के भीतर-भीतर बहने वाली नदी की तरह है। यह चाँदनी के रंग का है, कुछ-कुछ नारियल-पानी जैसा धुँधला। किसी-किसी की ही आँखों में यह सितंबर की धूप की तरह खिला है, अन्यथा ज़्यादातर बदरी की तरह छाया रहता है। पर कभी घोर निराशा में चली गई पार्वती जब उस अंधी सुरंग से वापसी करती है तो अंधेरे में भी फाड़ कर इसलिए ताकती रहती है कि उम्मीद का कोई जुगनू ज़रूर चमकेगा।
राकेश तिवारी (Rakesh Tiwari)
राकेश तिवारी की कहानियाँ पिछले कई दशकों से हिन्दी की लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं, जिनमें सारिका, धर्मयुग, रविवार, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, हंस, कथादेश, पाखी, नय