जिस लाहौर नइ देख्या ओ जम्याइ नइ :
वजाहत ने कथावस्तु को नाटकीय और मानवीय स्वरूप प्रदान किया है। वे धर्म का नितान्त विरोध नहीं करते बल्कि यह' बताते हैं कि समाजविरोधी तत्त्व किस तरह धर्म से फ़ायदा उठाते हैं। पात्रों का विकास तार्किक है तथा नाटक में पंजाब और लखनऊ की संस्कृतियों का मानवीय स्तर पर समागम अत्यन्त संवेदनशील है। बुद्धिजीवियों और साधारण जनता के बीच का जो सम्बन्ध होना चाहिए वह नाटककार ने मौलवी, कवि और जनसाधारण का प्रतिनिधित्व करने वाले पात्रों के माध्यम से उभारा है। मस्जिद में मौलवी की हत्या एक प्रतीक है जिसके माध्यम से स्वार्थी तत्त्वों द्वारा धर्म तथा जीवन के महान मूल्यों को नष्ट कर देने की बात कही गयी है।
- टाइम्स ऑफ इंडिया
5 अक्टूबर 1990
★★★
असग़र वजाहत का सम्बन्ध उस पंजाब से नहीं है जिसने विभाजन के दर्द को झेला है और न वे निजी रूप में उस युग के साक्षी रहे हैं लेकिन उन्होंने उस विभाजन के उस युग पर कलात्मक ढंग से लिखा है।... असग़र ने 'जिस लाहौर नइ देख्या...' नाटक को केवल मानवीय त्रासदी तक सीमित नहीं किया है बल्कि दोनों समुदायों के मनोविज्ञान को समझने का प्रयास किया है। इस प्रयास का उद्देश्य यह बताता है कि दोनों समुदायों के बीच क्या हुआ कि सांस्कृतिक एकता, मोहल्लेदारी, प्रेम, विश्वास और भाईचारा समाप्त हो गया था...
- हिन्दुस्तान टाइम्स
सितम्बर 1996
★★★
उन लोगों के सामने सिर झुकाना चाहिए जिन्होंने धार्मिक सहिष्णुता पर केंद्रित नाटक में भाग लिया और विभाजन के तैंतालीस साल के बाद एक बार फिर नाटक में चित्रित यह युग हमारे सामने आया।
-स्टार, कराची
जुलाई 1991
★★★
इस देश में आज जिस चीज़ की सबसे ज्यादा जरूरत है वह सहिष्णुता है जिसका अभाव हमारी नैतिक और सामाजिक बुनियादों को खोखला कर रहा है। इस संदर्भ में 'तहरीके निस्वां' थियेटर ग्रुप द्वारा हाल ही में प्रस्तुत नाटक 'जिस लाहौर नइ देख्या...' बहुत प्रासंगिक था।
-डॉन, कराची
जुलाई 1991
★★★
नाटक का नया पक्ष जो लेखक को अन्य प्रगतिशील लेखकों से अलग करता है वह यह है कि उसमें मौलवी को संकुचित विचारों वाला दकियानूसी आदमी नहीं चित्रित किया है। असग़र वजाहत का मौलवी खलनायक नहीं है । वह हर तरह से मानवीय है। क्या यह सेंसर बोर्ड (कराची, पाकिस्तान) को नाटक प्रस्तुत करने की अनुमति देने का आधार नहीं लगा ?
- हेराल्ड, कराची
जुलाई 1991
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