इस संग्रह में इरफान हबीब के आठ निबन्ध संकलित हैं। निबन्धों में विषय का वैविध्य तो है, किन्तु इस अर्थ में एकसूत्रता है कि सभी निबन्धों में कमोवेश इस धारणा अथवा प्रचार के विरुद्ध एक बहस की गयी है कि भारतीय समाज परिवर्तनहीन और जड़ परम्पराओं से ग्रस्त रहा है। 'भारतीय इतिहास की व्याख्या' उनका महत्त्वपूर्ण निबन्ध है। इसमें वे स्थापित करते हैं कि इतिहास का पुनः पाठ एक निरन्तर प्रक्रिया है। हम अतीत की समीक्षा इस आशा में करते हैं कि शायद वह हमारे वर्तमान के लिए भी कुछ उपयोगी हो।
यद्यपि जातीय व्यवस्था के विषय में उन्होंने अपने लेखों में जगह-जगह टिप्पणियाँ की हैं, किन्तु 'भारतीय इतिहास में जाति' लेख में उन्होंने जाति व्यवस्था के सन्दर्भ में विस्तार से विचार किया है-विशेष रूप से लुई इयूमाँ की पुस्तक 'होमो हायरार्किकस' के सन्दर्भ में। वे जाति की विचारधारा को शुद्ध रूप से ब्राह्मणवादी नहीं मानते। जाति-प्रथा हमेशा वर्गीय शोषण का आधार रही, जिसका सर्वाधिक लाभ शासक वर्ग ने उठाया। 'ब्रिटिश-पूर्व भारत में भू-सम्पत्ति का सामाजिक वितरण : एक ऐतिहासिक सर्वेक्षण' शीर्षक लेख में इरफ़ान हबीब ने भू-सम्पत्ति की विभिन्न अवस्थाओं और वर्गीय शोषण के विभिन्न रूपों का अध्ययन किया है। प्रस्तुत संग्रह में 'मार्क्सवादी इतिहास-लेखन' के सम्बन्ध में उनके तीन महत्त्वपूर्ण लेख हैं। 'मार्क्सवादी इतिहास विश्लेषण की समस्याएँ' लेख में मार्क्स की इतिहास-दृष्टि की पड़ताल की है। मार्क्स ने भारतीय समाज की निष्क्रियता और परिवर्तनहीनता की व्याख्या जातियों में जकड़े परम्परागत ग्रामीण समुदाय के रूप में की थी जो भारतीय कृषि-व्यवस्था को बरकरार रखने के लिए आवश्यक सिंचाई के साधनों के लिए पूरी तरह एशियाई निरंकुशता पर आश्रित रहने को बाध्य था। इस सन्दर्भ में उन्होंने मार्क्स के एशियाई उत्पादन पद्धति के सिद्धान्त की समीक्षा भी की है और स्थापित किया है कि मार्क्स ने अपने परवर्ती लेखन में इस स्थापना को छोड़ दिया था। इरफान हबीब ने वस्तुतः भारत के सन्दर्भ में जड़त्व की अवधारणा का जोरदार और तथ्यपरक खण्डन किया है। इन लेखों के अध्ययन से पाठक को अपने ज्ञान में थोड़ी भी वृद्धि होती है या इतिहास-दृष्टि के विषय में नया आलोक मिलता है, तो मैं अपना श्रम सार्थक समझूँगा।
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