इन्सान जन्म लेता है तो शिशु का बाल्यकाल होता है। उस काल में माता-पिता को या गार्जियन को या संरक्षक को बच्चों की सुरक्षा का ध्यान रखना होता है। यहाँ पर अपने कर्तव्य और अधिकार के साथ ज़िम्मेदारी का पालन करना ही सावधानी है। जब बालक शिक्षा में हाई स्कूल से ऊपर जाता है तब बालक की ख़ुद की ज़िम्मेदारी होती है। यह सावधानी बरतनी पड़ती है। मगर यह अर्थ नहीं रखता कि बालक के प्रति माता-पिता, गार्जियन एवं संरक्षक का कर्तव्य समाप्त हो जाता है, बल्कि पैनी दृष्टि रखना आवश्यक है, जैसे किस तरह के दोस्त हैं, कहीं बच्चा भटक तो नहीं रहा है, यह सावधानी बरतनी पड़ती है। जब इन्सान शिक्षा के बाद प्रतियोगिता एवं नौकरी प्राप्त कर लेता है तब समय-समय पर कार्यालय की जिम्मेदारी या कर्तव्य के साथ-साथ सावधानी बरतनी पड़ती है। इसके बाद गृहस्थ जीवन के साथ ही साथ प्रौढ़ एवं बुजुर्गी जीवन के रिश्तों को बनाये रखने में सावधानी बरतनी पड़ती है। स्वास्थ्य एवं आय का विशेष ध्यान रखना होता है, यदि सावधानी नहीं बरतेंगे तो, निश्चित है परेशानी आयेगी। परेशानी कितनी है, किस रूप में है वक़्त की बातें हैं। मानव जीवन में यदि सावधानी बरते तो समस्या आयेगी मगर कम आयेगी। सावधानी न बरते तो समस्या बढ़-चढ़ कर आयेगी। यह सावधान पुस्तक मानव जीवन के लिए उपयोगी, आवश्यक तथा उपयुक्त है। यदि मानव अपने आप को एक बार पुस्तक को पढ़ कर अमल करे तो शायद यह तो नहीं कहा जा सकता कि सावधानी से समस्या निपट जायेगी मगर यह कहा जा सकता है कि समस्या आ भी सकती है, तो कम या सीमित मात्रा में होगी, यही इस पुस्तक में कहना था।
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