ये जगह धड़कती है - ओम प्रभाकर की ख़ूबी ये है कि वे ग़ज़ल में नयी बात कहते हैं। ओम प्रभाकर की ग़ज़लें देखकर तअज्जुब हुआ कि नयी-नयी उर्दू सीखने वाला और टेढ़े-मेढ़े हरूफ़ में उर्दू लिखने वाला ये शायर न सिर्फ़ कि बहर, क़ाफ़िया और रदीफ़ के लिहाज़ से सही शे'र कहता है, बल्कि ये कि ज़ुबान और मुहावरे के एतवार से भी इसकी ग़ज़ल कमोबेश दुरुस्त होती हैं। ज़ाहिर है कि ये ख़ूबियाँ नहीं बुनियादी ज़रूरतें हैं। लिहाज़ा पहली बात जिसने मुझे प्रभावित किया वो ये थी कि ओम प्रभाकर के पास ज़रूरी सामान तो था ही, वो इस सामान को बख़ूबी बरतने का सलीका भी रखते थे, यानी इस मामूली सीमेंट, लोहा, लकड़ी से जो कमरे, दालान और गलियारे उन्होंने बनाये थे उनमें कुछ-कुछ नयी तरह की रोशनी झलकती हुई और कुछ नयी तरह की हवा बहती हुई महसूस होती थी। ओम प्रभाकर की ग़ज़ल में जो बेतक़ल्लुफ़ी का लहज़ा और एक तरह की साफ़गोई का अन्दाज़ है, उसे तो वे शायद हिन्दी से लेकर आये हैं, लेकिन इसके अलावा जो भी है वो उनका अपना है; और उसकी पहली विशेषता ये है कि वो ग़ज़ल के लहजे में शे'र कहते हैं, लेकिन मज़मून वो लाते हैं जो आमतौर पर ग़ज़ल में नहीं बरता जाता। ये बहुत बड़ी बात है और ये ऐसा इम्तिहान है जिसमें ग़ज़लगो शायर नाकाम रहते हैं। उम्मीद है कि वो बहुत दिनों तक बाग़े-उर्दू को गुलज़ार करते रहेंगे। —शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी
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