वधस्तम्भ - क्षय होती सामाजिकता, स्वार्थकेन्द्रित मानसिकता, और हिंसक गतिविधियों के कर पंजों में छटपटाती मानवता को औपन्यासिक कलेवर में दिखाने की सार्थक और महत्वपूर्ण कोशिश है—'वधस्तम्भ'। यह उपन्यास वर्तमान समाज का दर्पण है जो हमारे समाज की क्रूर सच्चाई को प्रकट करने में कोई संकोच नहीं करता। धर्म, अर्थ और काम-सम्बन्धों की विकृतियों ने मनुष्य के सहज-सम्बन्धों को इस हद तक विकृत कर दिया है कि जीने की सार्थकता खो गयी सी लगती है। ऐसी स्थिति में आश्चर्य नहीं कि हर संवेदनशील व्यक्ति को लगे कि वह अपना वधस्तम्भ ख़ुद अपने कन्धों पर ढोता हुआ चलने को विवश है। धार्मिक आतंकवाद के ज़हर ने न केवल हमारी सामाजिक समरसता का विनाश किया है बल्कि उसने नवजागरण काल के समाज सुधारकों के सामाजिक उत्थान हेतु किये गये अथक प्रयासों पर भी कालिख पोत दी है। उपन्यास की एक प्रमुख पात्र 'मरियम' की कोशिश रहती है कि वह ईसा मसीह के बताये रास्ते पर चलते हुए लाख बाधाओं और विपरीतताओं के बावजूद मानव-कल्याण का काम करती रहे। कहना न होगा कि अपने परिवेशगत कीचड़ में एक वही कमल के समान खिली नज़र आती है। मरियम जैसे चरित्रों के रहते ही मानव का भविष्य सुरक्षित है, यह उपन्यास इसकी प्रतीति कराता है। मराठी का 'वधस्तम्भ' अपने समय का महत्त्वपूर्ण उपन्यास है, जिसकी मराठी में बहुत चर्चा हुई है। आशा है हिन्दी पाठक भी इसका उतनी ही गहराई से आस्वादन कर सकेंगे।
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