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सेवानगर कहाँ है - ज्ञानप्रकाश विवेक की कहानियों में अपने समय की तहरीर ही नहीं, तहरीर के भीतर, सामाजिक हस्तक्षेपों की आवाज़ें भी शामिल हैं। कहानियों में बदलते जीवन मूल्यों की बेचैन कैफ़ियत... सम्बन्धों के द्वन्द्व से पैदा हुई व्याकुलता तथा स्मृति की थरथराती छायाएँ हैं जो कहानियों को नया लहज़ा, परिवेश और पर्यावरण देती हैं।... नये समाज में जो असुरक्षा का भाव तथा अकेलापन, चहलक़दमी करते चले आये हैं, उनकी अन्तर्ध्वनियाँ भी इन कहानियों में निरन्तर सुनायी देती हैं। कहानियों के केन्द्र में बेशक समाज है लेकिन ऐसा भी प्रतीत होता है जैसे कथाकार समाज के भीतर जाकर आदमीयत की शिनाख्त ही नहीं, उसकी पैरवी भी कर रहा है। संग्रह की कहानियाँ, ज़िन्दगी की रेत पर कई सारे सवालिया निशान छोड़ती चली जाती हैं—समाज इतना वाचाल है तो मन में इतना सन्नाटा क्यों ?... बाज़ार में इतना वैभव है तो आम जन के पास सिर्फ़ दर्द का टाट क्यों?... आँखों में अगर आँसुओं की नमी है तो मनुष्य इतना निस्संग क्यों? कहानियों में एक निरन्तर जिरह है जो कभी समाप्त नहीं होती। शायद यही वजह है कि कहानियाँ भी समाप्त होने के बावजूद, समाप्त नहीं होतीं। किसी बिम्ब की तरह अपनी छोटी-सी जगह बना लेती हैं... इन्हीं विशेषताओं के कारण चर्चित कथाकार ज्ञानप्रकाश विवेक के इस नवीनतम संग्रह की कहानियाँ पाठकों को अवश्य प्रभावित करेंगी।
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