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सगबग मन - प्रयोगधर्मिता और अतिरंजित नूतनता के नाम पर हिन्दी कहानी से विदा होती क़िस्सागोई को दिव्या विजय के इस कथा-संग्रह में देखना प्रीतिकर विस्मय देता है तथा समकालीन साहित्य में उनकी उपस्थिति को रेखांकित करता है। प्रत्येक कहानी के पहले पृष्ठ से ही आस्वाद का प्रलोभन अन्तिम पृष्ठ तक ले जाता है। कथाओं के पात्र, विशेषतः नारी पात्र परिस्थितिजन्य अन्तः व बाह्य विवशताओं के समक्ष भी अपनी दृढ़ता दिखाने की टेक नहीं छोड़ते। लेखिका कथा-फलक के चुनाव में सावधानी बरतती हैं ताकि वे जीवन पर आरोपित सत्यों और यथार्थ के विरोधाभास को वहन कर सकें। संग्रह की भाषा गुरु-गन्भीर व्याख्याओं की अपेक्षा पात्र सम्पृक्त है तथा सृजनात्मक परिधि को विस्तार देती है। लेखिका की कलात्मक दक्षता संवेदना को और प्रखर बनाने के साथ, अनावश्यक विस्तार के प्रति अनाग्रही है। कहानियों के अन्त दुखान्त-सुखान्त होने की श्रेणी से विलग हो अपनी अर्थवत्ता से स्नात हैं, जो पाठक में सुलझे अनसुलझे सवालों का औत्सुक्य छोड़ जाते हैं।
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