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नये सजन घर आए - जितेन्द्र विसारिया की यह किताब समकालीन कथा परिदृश्य में एक आश्चर्य की तरह इसलिए पढ़ी जानी चाहिए कि इसमें ग्रामीण जीवन का अलक्षित पुनर्वास है। ऐसा ग्रामीण जीवन जिसमें वस्तुगत यथार्थ की सच्ची और मार्मिक छवियाँ हैं। इधर शोषित प्रवंचित समाज का सत्य जबकि कहानियों से दूर होता जा रहा है और दलित जीवन की स्थितियों पर कहानीकारों की निगाह ठिठकी-ठिठकी सी है, जितेन्द्र विसारिया क़िस्सागोई की अचूक ताक़त के साथ गाँव और उसकी वर्ण-व्यवस्था के अब तक स्थापित भयावह सच को आधुनिक सन्दर्भ में अनुभूत करते हुए, पाठकों के सामने रखते हैं। आज के गाँव में जो जातिगत भेद-विभेद, अनाचार, शोषण और सामन्ती सोच का बोलबाला है, ये कहानियाँ उनके विरोध में मज़बूती से खड़ी होती हैं। चम्बल के गाँव-जवार की जातीय संरचना और सामाजिक सांस्कृतिक पिछड़ेपन को परिभाषित करती यह कृति हमें पाठ के बाद सन्नाटे की हतप्रभता में विचार के लिए छोड़ देती है। लोक भाषा की प्रवाहमयता, सादगी और आन्तरिक लय में सत्य का उत्खनन करती यह कृति अपना विशिष्ट होना प्रमाणित करती है।
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