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मानुस - हिन्दी के युवा कथाकार गौरीनाथ का दूसरा कहानी-संग्रह है 'मानुस'। गौरीनाथ अपने आसपास के छोटे-छोटे ब्योरों से जीवन्त कथास्थितियाँ रचते हैं। उनकी कथा भाषा ग़रीबी के जिस सौन्दर्य को प्रस्तुत करती है उसमें ग़रीबों के दुःख और गुमान दोनों व्यक्त हुए हैं। राजनीतिक शब्दावली में कहें तो 'सर्वहारा का स्वाभिमान' उनकी कहानियों की केन्द्रीय संवेदना है और साहित्यिक साध्य भी। इस साध्य के लिए वह लोक में गहरे उतरते हैं और विभिन्न रंगों और स्वादों के सुख-दुःख, कथा-क़िस्से और नाच-गान को बटोरकर उन्हें अपने लेखन का साधन बनाते हैं। इन कहानियों का एक ख़ास भूगोल है जिसमें वहाँ का पर्यावरण, पेड़-पौधे और जन-जीवन से जुड़ी सामाजिक और आर्थिक स्थितियों का चित्र मिलता है। ग़ौरतलब है कि संग्रह की अधिकांश कहानियाँ मिरचैया नदी और कालिकापुर पलार के आसपास की हैं। प्रचण्ड उपभोक्तावाद के इस कठिन समय में गौरीनाथ के पात्र जिस तेवर से व्यवस्था का विरोध करते हैं, वह निपट भावुकता नहीं, बल्कि लेखक की वैचारिक प्रतिबद्धता का भी द्योतक है। ग्रामीण समाज का गहन अनुभव लेखक को नागार्जुन की प्रतिरोधी परम्परा के समीप ले जाता है। इस पुस्तक को पढ़ना एक युवा कथाकार की दृष्टि से मिथिला के गाँवों को देखना भी है।
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