दाह - गुजराती कथाकार केशुभाई देसाई के प्रसिद्ध उपन्यास 'होलाष्टक' का अनुवाद है—'दाह'। जीवन में जब कभी ऐसी घटनाएँ आ घटती हैं जिनसे प्रभावित होकर व्यक्ति धधकती ज्वालाओं भरा दाह बनकर रह जाता है। प्रस्तुत उपन्यास में घने जंगलों के बीच बसे गाँव दरबारगढ़ के सामन्ती परिवेश के एक ऐसे ही अभिशप्त या कहें नियति के चक्र में फँसकर रह गये पीड़ित परिवार की कथा-व्यथा है, जिसका रूपांकन कथाकार ने इस उपन्यास में बड़े ही रोचक और प्रभावशाली ढंग से किया है। ऐसा माना जाता है कि होली के पूर्ववर्ती आठ दिन प्रायः अमांगलिक होते हैं। ऐसे अवसर पर कथक अपने प्रेमभग्न जीवन की यातना झेल रही प्रेयसी को सान्त्वना देने के तौर पर यह कथा सुना रहा है। कथा के प्रमुख पात्र हैं— दरबारगढ़ की विशाल हवेली के बूढ़े बापू कुँवर साहब और उनकी बहूरानी तथा बावला बादशाह; या फिर वैसी ही व्यथा-अग्नि में झुलस रहा स्वयं कथक जो समझ नहीं पा रहा कि अपनी प्रिया को यह सब लिख भेजने के पीछे उसकी भावना क्या अपनी अन्तर्वेदना को पूर्णाहुति देने की है या स्वयं के लिए सान्त्वना के कुछ पल ढूँढ़ने की। प्रस्तुत उपन्यास का कथानक तो रोचक है ही, मुहावरेदार भाषा-शैली की दृष्टि से यह कृति इस प्रकार अपना प्रभाव छोड़ती है कि हिन्दी का हर कथाप्रेमी पाठक भावना की गहनता स्वतः ही अनुभव करने को बाध्य हो जाता है। लेखक की एक विशिष्ट रचना।
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