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बयान - हिन्दी की चर्चित कथाकार चित्रा मुद्गल ने उपन्यास और कहानियों में सर्वथा नयी ज़मीन का अन्वेषण तो किया ही है, लघुकथा-लेखन में भी उन्होंने अपने सघन विशिष्ट भावबोध के चलते अलग पहचान कायम की है। कलेवर में लघु होने के बावजूद उनकी कहानियों का रचनात्मक और संवेदनात्मक प्रभाव पाठक के मर्म को गहरे उद्वेलित ही नहीं करता उन्हें अपने विवेक के कटघरे में स्वयं दाख़िल होने को बाध्य भी करता है। चित्रा जी जीवन की क्षणिक घटनाओं और अनुभूतियों को छोटे-से कैनवास पर जिस रचना-कौशल के साथ उसकी अन्तस्तहों को उद्घाटित करते हुए चित्रित करती हैं, वह उस परिवेश को मन में अत्यन्त सहज रूप से अंकित कर देता है। उनकी लघुकथाओं के पात्र सर्वहारा और शोषित होने के बावजूद अपने जुझारूपन को नहीं छोड़ते और एक अदम्य जिजीविषा का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। जीवन से सीधा सम्बन्ध रखने के कारण चित्रा जी की लघुकथाएँ पाठकों को निजी और विश्वसनीय लगती हैं। उनके इस पहले लघु कथा-संग्रह में भी जनपक्षधरता का ऐसा प्रभावी रूप नज़र आयेगा जो अन्यत्र विरल दिखता है। ये लघुकथाएँ बिहारी के दोहों की तरह देखने में छोटी लगती हुई भी मर्म पर चोट करती हैं।
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