बाहर कुछ नहीं था - बूढ़ा जैहिन्दी इस त्रिआयामी संसार में होकर भी नहीं है। वह सिर्फ़ उन क़िस्सों में अपनी घड़ी के साथ ज़िन्दा है, जो लोगों ने अपने बाप-दादाओं से सुनी हैं। इस अंचल में आज भी जैहिन्दी का नाम लेते ही आप उन कथाओं को सुन सकते हैं और बेचारगी से सिर हिलाकर कह सकते हैं– 'शिट!' चेतना की अन्तिम सीढ़ी पर खुली एक खिड़की के पार झाँक लिया है अनु ने, जान लिया है सबकुछ, जो जानना चाहिए उस औरत के बारे में, जो उसके वजूद का कारण है और जब तक रहेगी यह सृष्टि लाखों-करोड़ों सन्ततियाँ जियेंगी उसके वरदान पर। इस विराट मायाजल में वह अन्तिम अणु था, जिसे यह सब छिन्न-भिन्न कर देना था, क्योंकि झूठी आशा और झूठे विश्वास का पाप ख़ुद के मिटने से ही कटता है और समस्त पीड़ाएँ एक विराट पीड़ा में ही समाहित हो सकती हैं। 'फिर मेरे आसपास का शोर धीमा पड़ने लगा। धीरे-धीरे मैं पंख की तरह हल्का होने लगा। मैं हवा में उठा और कुलबुलाती भीड़ के ऊपर तिरता रोशनी की उस लकीर की तरफ़ खिंचता चला गया। मैंने ख़ुद को चमक से घिरा पाया। सतरंगी लहरें मेरे आर-पार बहने लगीं। हौले-हौले उनके साथ बहता मैं परदे से जा लगा, मैंने ट्रेन की छत पर खड़ी उस विराट छाया को छूने की कोशिश की और वह एक नामालूम धब्बे में बदल गयी।'—(इसी संग्रह की कहानियों से)
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