अन्त हाज़िर हो - कहीं-कहीं परिवार में कुछ रिश्ते मिथक बन गये हैं। ऐसे मिथकीय रिश्तों में पड़ी दरारों से हम कतराकर निकल जाते हैं। उन्हें ग़ैर-मौजूद घोषित करते रहते हैं। पर मिथक तो बहरहाल मिथक होते हैं, वास्तविकता नहीं। मीरा कान्त का नाटक 'अन्त हाज़िर हो' ऐसे ही कुछ पारिवारिक रिश्तों की दलदल में प्रवेश करता है। उन सीलबन्द रिश्तों की बखिया उधेड़ता है। उनकी सीवन को तार-तार करता है। परिवार के स्तर पर बलात्कार या व्यभिचार के मामले 21वीं सदी की खोज नहीं हैं। ये सदा से रहे हैं पर सचेत समाज के खुलेपन में उजागर अधिक हुए हैं, सार्वजनिक तौर पर। यह नाटक जीवन की उन स्थितियों व घटनाओं को मंच पर लाता है जो छोटी उम्र से ही किसी बालिका का दुःस्वप्न बन जाती हैं। यह समाज का दुर्भाग्य है कि वह पारिवारिक व्यवस्था में घुन की तरह छिपी बैठी इन स्थितियों व मनस्थितियों को चावल में से कंकर की तरह निकाल बाहर करने की हिम्मत नहीं। रखता। इसके विपरीत इसे किसी कोने में धकेलकर ख़ुद बाहर आ जाता है, यह जताते हुए कि कहीं कुछ ग़लत नहीं। यह नाटक पारिवारिक व्यभिचार या बलात्कार की कथा नहीं, रिश्तों में ग़ैर-ईमानदारी की कथा है। विश्वासघात की कहानी है— पत्नी के साथ, बेटी के साथ और रिश्तों की मर्यादा के साथ समाज की संरचना मर्यादा की जिन ईंटों से हुई है, उन ईंटों के साथ। 'अन्त हाज़िर हो' उन स्थितियों का नाटक है जब घर सुरक्षित चहारदीवारी का प्रतीक न होकर ख़तरा बन जाता है। जब घर में भी घात लगी हो और वह घातक बन जाये। यह घरेलू हिंसा और बलात्कार से कहीं आगे जाकर मानवता की टूटती साँसों का नाटक है।
Log In To Add/edit Rating
You Have To Buy The Product To Give A Review