गली रंगरेज़ान -
"इस उपन्यास के सब पात्र और घटनाएँ वास्तविक हैं। यदि कोई व्यक्ति इस उपन्यास में अपनी या अपने जीवन की किसी घटना की प्रतिच्छवि देख पाये तो लेखिका अपना श्रम सार्थक समझेगी।"
इस घोषणा के साथ ही लेखिका लता शर्मा अपने इस उपन्यास 'गली रंगरेजान' के आरम्भ में ही दुनिया के सबसे बड़े लोकतन्त्र को आईना दिखा देती हैं। इस उपन्यास में वे बहुत खिलन्दड़े अन्दाज़ में कॉलेज और विश्वविद्यालयों में चलने वाली छात्र राजनीति को उठाती है... कि जिस तरह गिरगिट रंग बदलते हैं, उसी तरह हर बार चुनावी माहौल में युवा छात्र और छात्राओं के हाथ के झण्डे भी अपना रंग बदल लेते हैं, उनके नारे भी। यह उपन्यास एक ओर जहाँ खिलन्दड्रेपन से भरा है वहीं वर्तमान की विडम्बनात्मक राजनैतिक परिस्थितियों पर तीख़े व्यंग्य के माध्यम से विहंगम दृष्टि भी डालता है। इस उपन्यास के पात्र आम जनता में से उभरे पात्र हैं। उनके विचार, सोच, स्थितियाँ आम नागरिक की जैसी ही हैं। हाँ, कहीं-कहीं लेखिका ने अपनी फ़ंतासी से ऐसे रंग भरे हैं, जिससे स्थितियाँ मज़ेदार बन जाती हैं, कथानक रोचक हो जाता है। व्यंग्य लेखन में अतिशयोक्ति युक्त वर्णन होना व्यंग्य उभारने में सहायक होता है, अगर वो सहजतापूर्ण तरीक़े से किया जाये।
इस उपन्यास में व्यंग्य लेखन के सभी उपादान हैं मगर इसे व्यंग्य-रचना कह कर मैं इस उपन्यास को परिसीमित नहीं कर सकती, क्योंकि इसमें एक वैचारिक प्रतिबद्धता मौजूद है। इस मज़ेदार और व्यापक कथानक के बरअक्स एक विडम्बना भी है कि किस तरह हमारी नायक विहीन युवा पीढ़ी अपने असमंजस के साथ अपने विचार नहीं, बस झण्डों के रंग बदलती रहती है।
लता शर्मा अपने व्यंजना से भरपूर अन्दाज़ में मारक बात कहने में माहिर लेखिका हैं। 'गली रंगरेजान' उनकी धारदार लेखनी की एक चमकती हुई काँध है, इस उपन्यास की भाषा में जो रवानगी है उसमें पाठक बस बह जाता है।
"हाथी के दाँत खाने के और होते हैं, दिखाने के और। सड़कों-गलियों के नाम, पट्ट पर कुछ और होते हैं, लोगों की ज़बान पर कुछ और... जयप्रकाश नारायण मार्ग को कोई नहीं जानता; गली रंगरेजान को कौन नहीं जानता।" (इसी उपन्यास से) -मनीषा कुलश्रेष्ठ
अन्तिम पृष्ठ आवरण -
कल्लाना राजकीय महाविद्यालय में साढ़े चार हज़ार छात्र पढ़ते थे। आस-पास के गाँव-क़स्बों के विद्यार्थी भी स्नातकोत्तर, एम.फिल. और शोध कार्य के लिए कल्लाना ही आते थे। स्वाभाविक है, छात्रावास के अभाव में इन विद्यार्थियों को बड़ा कष्ट होता था। ये छात्र कहीं कमरा लेकर रहते थे और ढाबे में खाना खाते थे। निरन्तर ढाबे में खाना खाने से उनका स्वास्थ्य चौपट हो रहा था और बीमारियाँ अक्सर ही उन्हें दबोच लेती थीं। इस तरह उनका व्यक्तिगत व्यय भी बढ़ जाता था और पढ़ाई के लिए यथेष्ट समय भी नहीं मिल पाता था।
शिकायतें तो और भी बहुत सी थीं। ....यह तो हुआ छात्रों का पक्ष!
अब मकान मालिक का भी पक्ष सुनना चाहिए। छात्र दो-तीन महीने का किराया दे देते हैं। उसके बाद मनीआर्डर नहीं आया, परसों गाँव से कोई आयेगा, इतवार को मैं ख़ुद जाऊँगा, तो देंगे किराया। कहीं भागे जा रहे हैं क्या? इस तरह की सूक्तियाँ पढ़ने लगते थे। कमरा एक छात्र लेता, फिर उसके दोस्त और रिश्तेदार भी आकर रहने लगते। कभी-कभी ये रिश्तेदार इतने खूँखार लगते थे कि मकान मालिक अपने परिवार की सुरक्षा के प्रति भयभीत हो उठता। चौबीस घण्टे बिजली जलाये रखते हैं, नल खुला छोड़ देते हैं, हर समय कुछ न कुछ माँगते रहते हैं, चायपत्ती, शक्कर, नमक, गुड़, अचार और दंगे-फ़साद में बाज़ार बन्द हो, तो खाना भी! कुछ कहो तो ढेर सारे छात्र घेराव करते हैं और मकान मालिक के स्कूल जाने वाले बच्चों को 'देख लेने' की धमकी देते हैं।
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