सेक्स (यौनता) और लैंगिकता भिन्न है । सेक्स यानी यौनता जैविक शरीर केन्द्रित है पर लिंग (जेंडर) इच्छा केन्द्रित है । लैंगिकता बदलती है प्रत्येक व्यक्ति की इच्छा के अनुसार । स्त्री होने पर भी स्त्री के प्रति लैंगिक इच्छा होना, पुरुष का पुरुष के प्रति, उसी प्रकार कुछ लोगों को स्त्री और पुरुष दोनों के प्रति लैंगिक इच्छा होना स्वाभाविक है । पर समाज के लिए ये सब विकृतियाँ हैं, अस्वाभाविक हैं और असामाजिक हैं। उनकी मान्यता यह है कि बहुसंख्यक लोगों की वृत्तियाँ ही प्रकृत हैं, शेष सब विकृत यानी कि अस्वाभाविक एवं निन्दनीय। सचमुच यह सही नहीं। उन सारी विकृतियों को प्रकृत मानने की क्षमता जब समाज हासिल करता है तभी वह समाज सभ्य बनता है । वहाँ सबकी स्वीकृति समान रूप से होती है, होनी चाहिए।
यद्यपि लेस्बियन, गे, बाई-सेक्सुअल और ट्रांसजेंडर समाज में पहले ही वर्तमान थे तथापि इन्हें निन्दनीय समझा जाता था। इसलिए वे छिपे रहे। समाज विपरीत रति को ही मान्यता देता था । पर ज्ञानस्थिति के परिणामस्वरूप इन रुचिभेद वालों ने समझ लिया कि हम भी प्रकृत हैं, विकृत नहीं । समाज की समझ अज्ञता के कारण है । इसलिए एलजीबीटीक्यू ने अपनी शैक्षिक एवं सामाजिक समझ के तहत अपने को पहचाना और अपने लिए लड़ना शुरू कर दिया। उनका दावा है कि हम भी प्रकृत हैं, हमें भी समाज में बराबरी के साथ जीने का हक़ है, अधिकार है। हम चाहे अल्पसंख्यक क्यों न हों, सृष्टि की विशेषता है। इसमें हमारा कोई दोष नहीं, दोष देखने वालों की मानसिकता में है। इसलिए हमें पूरी स्वतन्त्रता, बराबरी एवं अधिकार के साथ इस समाज में जीने का अधिकार है। इस अस्मिता की माँग करते हुए, एलजीबीटीक्यू के लोगों ने ‘कमिंग आउट’ करना शुरू किया। कमिंग आउट सचमुच आत्मस्वीकृति है। वे स्वीकार करते हैं कि मैं लेस्बियन हूँ, गे हूँ, बाई-सेक्सुअल हूँ या ट्रांसजेंडर हूँ । यह आत्मस्वीकृति युगों-युगों की निन्दा, अपमान एवं दमन की प्रतिक्रिया है। यह सचमुच अस्मिता की उद्घोषणा है। कोई दुराव - छुपाव नहीं, खुल्लम- खुल्ला बोल देने की क्षमता उन्होंने अर्जित की है, शिक्षा तथा उससे आत्मसात विश्वबोध से ।
- भूमिका से
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