29 अप्रैल, सन् 2000 की शाम जे. एन. यू. (जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी) में एक हिन्दो-पाक मुशायरे का आयोजन किया गया। अध्यक्ष थे डॉ. अली जावेद । जिसमें कई नामी-गिरामी शायरों के साथ फ़हमीदा रियाज़ को भी निमन्त्रित किया गया था। ज्यों ही फ़हमीदा स्टेज पर पहुँचीं और अपनी नज़्म 'नया भारत' पढ़नी शुरू की, श्रोताओं पर एक अजीब-सी ख़ामोशी पसरती चली गई। वो नज़्म थी ही ऐसी ! एक-एक शब्द मानों बेबाक सच्चाई की तल्ख घुट्टी में सना हो ! नज़्म धीरे-धीरे अपने चरमोत्कर्ष की तरफ़ गामज़न थी... ग़ज़लों के हल्के-फुल्के माहौल में एक ऐसी संजीदा और किलसा देने वाली नज़्म ...सचमुच सबकुछ अजीब-सा ही था और तभी... पाकिस्तान मुर्दाबाद! पाकिस्तान | मुर्दाबाद ! के नारों से पूरा हाल गूंज उठा। दो नौजवान हाथों में पिस्तौल लिए पाकिस्तान मुर्दाबाद! पाकिस्तान हाय-हाय ! के नारे लगाते स्टेज की तरफ़ बढ़ने लगे। फ़हमीदा रियाज़ भी अपनी नज़्म पूरी करने की जिद करने लगीं। बहुत मुश्किल से उन्हें समझा-बुझाकर मुशायरे से बाहर लाया गया।...
इस हादसे के दो रोज़ बाद ही खुद चलकर | हिन्दी दैनिक 'राष्ट्रीय सहारा के ऑफिस गईं .... | इण्टरव्यू दिया और वो नज़्म 'नया भारत', जोकि मुशायरे में पूरी नहीं सुना पाई थीं, प्रकाशित करवाई । 'राष्ट्रीय सहारा' में छपे उनके उस इण्टरव्यू से दो बातें खुलकर सामने आईं। एक तो ये कि वो भारतीय साहित्य और संस्कृति की अच्छी जानकार हैं और दूसरी ये कि वो भारत को भी उतना ही प्यार करती हैं जितना कि अपने वतन पाकिस्तान को।
फ़हमीदा रियाज़ अपनी स्पष्टवादिता और अपनी निर्भीक अभिव्यक्ति के लिए ख़ासी बदनाम रही हैं और इसकी सज़ा भी उन्हें बराबर मिलती रही है- कभी पाकिस्तान से देश-निकाला, कभी अपने ही समकालीन रचनाकारों द्वारा प्रचंड विरोध, तो कभी मुशायरों वग़ैरा में पूर्व-नियोजित हूटिंग का दंश उन्हें झेलना पड़ा है। लेकिन वो हैं कि अपनी तल्ख़- ख-बयानी ( दरअस्ल हक़-बयानी) से बाज़ नहीं आतीं। ये नॉविल 'कराची' भी उनकी इन्हीं तमाम ख़ूबियों का हामिल है। ‘कराची’ जो कि महज़ एक शहर ही नहीं है, बल्कि पाकिस्तान की तमामतर गतिविधियों का केंद्र-बिंदु भी है पाकिस्तान में घटित होने वाली अधिकांश आपराधिक गतिविधियाँ किसी न किसी रूप में 'कराची' से संबद्ध हैं। लेखिका को 'कराची' अकसर एक चीख़ती-चिल्लाती पागल औरत की तरह जान पड़ता है जिसकी चीख़ो-पुकार पर कोई ध्यान नहीं देता और न ही देना चाहता है।