कला-चिन्तन की परम्परा में स्वतन्त्र अनुशासन के रूप में 'तुलनात्मक सौन्दर्यशास्त्र' का इतिहास बहुत पुराना नहीं है। बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में स्वयं पश्चिम के विचराकों ने इस बात पर बल देना आरम्भ किया था कि 'तुलनात्मक सौन्दर्यशास्त्र' की परिव्याप्ति में पूर्व को भी सम्मिलित करना आवश्यक है। प्रस्तुत ग्रन्थ में रस - सिद्धान्त को आधार मानकर प्राच्य एवं पाश्चात्य प्रमुख सौन्दर्यशास्त्रीय अवधारणाओं का तुलनात्मक अध्ययन किया गया है ।
अध्ययन की प्रक्रिया में न तो इस बात का आग्रह है कि प्रत्येक पाश्चात्य मान्यता अपने यहाँ भी पहले ही से प्राप्त है और न संस्कृत काव्यशास्त्रीय अवधारणाओं को पाश्चात्य चिन्तन की शब्दावली में प्रस्तुत करके उन्हें आधुनिक प्रदर्शित करने का उत्साह दिखाया गया है। इस प्रकार युक्ति- कल्पना की अपेक्षा दृष्टि तथ्य-चयन एवं वस्तु-निरूपण पर ही केन्द्रित रही है।
इस प्रयास में रस-सिद्धान्त के व्यापक स्वरूप को ग्रहण करते हुए उसका पुनर्निर्माण इस रूप में किया गया है कि वह काव्य-सृजन से काव्य के आस्वाद तक एक समग्र-सम्पूर्ण काव्य-सिद्धान्त के रूप में सामने आता है। रस-सिद्धान्त से तुलना के लिए प्रायः पश्चिम की रोमांटिक और प्रत्ययवादी परम्परा के कला-सिद्धान्तों को प्रस्तुत करने की परिपाटी से भिन्न इस ग्रन्थ में पाश्चात्य सौन्दर्यशास्त्र की नवीन प्रवृत्तियों और नव्य-समीक्षा की वस्तुकेन्द्रित दृष्टि का आकलन किया गया है।
इस रूप में रस-सिद्धान्त के वस्तुनिष्ठ पक्षों को उभारते हुए, पश्चिम के समानान्तर सिद्धान्तों से उसकी तुलना, तुलनात्मक अध्ययन के क्रम को एक नयी दिशा देने का प्रयास है। यह अध्ययन कवि, कृति और पाठक में से किसी एक को उसकी एकांगिता में नहीं बल्कि सृजन से ग्रहण और आस्वाद तक सम्पूर्ण प्रक्रिया की अनिवार्य कड़ी के रूप में प्रस्तुत करता है।
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