नाटक कर्म एक युद्ध है - हर नाटककार की एक अलग पृष्ठभूमि होती है जिसमें अर्थ और भाव की खोज अपने-अपने ढंग से करता है । जिस प्रकार धन का लोभ नाटक को जन्म नहीं दे सकता उसी प्रकार यश की आकांक्षा श्रेष्ठ नाटक को जन्म नहीं दे सकती। नाटक से भले ही यश की प्राप्ति होती है पर इसका मतलब यह नहीं कि यश की आकांक्षा रखने वाला हर व्यक्ति नाटककार हो जाता है।
छत्तीसगढ़ी लोक नाटकों के सृजन की मनोभूमि में नाटककार श्री दुर्गा प्रसाद पारकर' सोन चिरई' में डाक्यूमेंट्री फिल्म- डोंगरगढ़हीन दाई बम्लेश्वरी, नाटक- सुग्घर गांव, सोनबती, हमला का करना हे, मंथरा, लघु फिल्म- सोन चिरई, बुद्ध के हनुमान, पठौनी जैसी रचनाओं में नाटककार यही चाहता है कि वह जो कुछ रचे वह अधिक संख्या में भी प्रमाण और अधिक ढंग से और अर्थवान हो । वह इन नाटकों को, पात्रों को नया अर्थ दे सके ।
नाटककार श्री दुर्गा प्रसाद पारकर, शिवनाथ, सुकुवा, चंदा अउ 'नरवा - गरवा - घुरवा - बारी' जैसी लोक नाटकों के सर्जना में अपनी दायित्व बोध से उतना ही प्रेम करता है जितना अपनी संतान से । लोक नाट्य शिवनाथ की 75वीं प्रस्तुति को भी छत्तीसगढ़ के अलावा अलग-अलग राज्यों में चिन्हारी छोड़ आया है । पुत्र के मन में माता-पिता के प्रति चाहे लगाव न हो पर माता-पिता के मन में पुत्र के प्रति सहज स्वाभाविक लगाव होगा ही क्योंकि वह उसका सृजन है। नाटक विधा एक बहुत ही कठिन कर्म है । रातों को नींद नहीं आती। छत्तीसगढ़ी की सर्जना ने दुर्गा प्रसाद पारकर को पं. रविशंकर विश्वविद्यालय में एम. ए. ( छत्तीसगढ़ी) का प्रवर्तक बनाया | शिवनाथ और चंदा ने छत्तीसगढ़ की विराट फलक पर राष्ट्रीय पहचान दी।
मैं यह कह सकता हूं। कि नाटक कर्म श्री पारकर के लिए एक युद्ध है, एक पीड़ा है। सृजन की पीड़ा का अनुभव श्रेष्ठ रचना शिवनाथ, सुकुवा, चंदा को जन्म दिया है। जिससे नाटककार पल्लवित पुष्पित हुई है। प्रेम साइमन की भांति दुर्गा प्रसाद पारकर की परंपरा तो अटूट है। आज भी उस परंपरा से जुड़कर छत्तीसगढ़ के अनेक कलाकार आबाध गति से जन संघर्ष में अपनी सक्रिय भूमिका अदा करते जा रहे हैं।
( भूमिका से)
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