वरिष्ठ आलोचक सूरज पालीवाल हिन्दी के उन चुनिन्दा आलोचकों में हैं जो इस दौर में भी अपनी आलोचकीय प्रतिबद्धता के साथ खड़े हैं। उनकी ख़ासियत यह है कि वे नये से नये लेखक को भी चाव से पढ़ते हैं और उस पर अपनी बेबाक राय बनाते हैं। विगत कुछ वर्षों से वे कहानी और उपन्यासों पर हिन्दी की तमाम बड़ी पत्रिकाओं में लगातार लिख रहे हैं। वे समय की शिला पर वर्तमान रचनाशीलता को परखना चाहते हैं इसलिए पिछले पाँच वर्षों से 'पहल' में उपन्यासों पर लिखे उनके आलेखों में समय की कसौटी पर उपन्यासों का पाठ किया गया है। इस प्रकार की पाठ केन्द्रित आलोचना एकरेखीय जड़ता का प्रतिलोम रचती है। वे आलोचक होने से पहले सुगम्भीर पाठक हैं। उन्हें केवल विचारधारा ही नहीं बल्कि साहित्य के सौन्दर्यशास्त्र की भी उतनी ही गहरी समझ है, जिससे वे उपन्यास की कथाभूमि के साथ उसके सौन्दर्य की विरल व्याख्या करते हैं। 'पहल शृंखला' के इन आलेखों में उनकी आलोचना के नये क्षितिज दिखाई देते हैं, यही कारण है कि ‘पहल' के सुधी सम्पादक को अपनी टिप्पणी में यह लिखना पड़ा कि 'सूरज पालीवाल का यह स्तम्भ अब 'पहल' के लिए अनिवार्य हो चला है ।'
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बार-बार यह कहा जाता रहा है कि महान उपन्यास लिखे जा चुके हैं। जेम्स ज्वायस, तालस्ताय, प्रेमचन्द, फणीश्वरनाथ रेणु और ऐसे ही अनेक बड़े उपन्यासकारों की छायाएँ छूटती नहीं। इसके बीच उपन्यास के अस्तित्व को बचाये रखने और नया उपन्यास लिखने की चुनौती हमारी भाषा में भी बढ़ गयी है। मेरा यह मानना है कि पुरानी कसौटियों को मर जाना चाहिए। नयी दुनिया कम जटिल या खूंख्वार नहीं है और हमारे रचनाकार उससे बेहतर जूझ रहे हैं। उनकी छोड़िए जो उपन्यास लिखने के लिए उपन्यास लिखते हैं। मुझे लगता है कि भारत में नया उपन्यास अब यत्र-तत्र लिखा जा रहा है। यहाँ एकत्र लेखों और उपन्यासों में यह नज़रिया शामिल है।
'पहल' के सत्तरह अंकों में इतनी ही बार हिन्दी के कुछ आधुनिक उपन्यासों की गम्भीर गवेषणा सूरज पालीवाल ने की है। उन्होंने अपनी लय को मज़बूती से बनाये रखा और हिन्दी की नयी पुरानी प्रतिभाओं का बेबाक चयन किया। इसमें एक बड़ी भाषा का भूमण्डल है और पाँच वर्षों की वे रचनाएँ हैं जो चुनौतीपूर्ण, कठिन कथाकारों से जूझती हैं। किसी सम्पादक को ऐसा आलोचक मुश्किल से मिलता है जो तल्लीनता से पत्रिका की ज़रूरतों के मुताविक लेखन करे। हिन्दी में यह अनुशासन दुर्लभ नहीं तो कम अवश्य है। आमतौर पर कतरनें आलोचना हैं। बड़े काम के लिए कल्पनाशीलता, धीरज, मशविरा और अर्जित भाषा काम आती है। यहाँ सभी कठिन उपन्यास हैं, उनमें महाकाव्य की तरफ बहाव है। द्रष्टव्य है कि यहाँ सत्तरह में से नी उपन्यास महिला कथाकारों के हैं। यह एक ज़रूरी संकेत है। 'पहल' ने सन्तुलन और विवेक के साथ आलोचकीय न्याय के लिए सूरज पालीवाल का साथ लिया। यहाँ उपन्यासों का फलक बहुरंगी है और यह भी कि वे हिन्दी में उपन्यास के बड़े हद तक जीवित रहने के प्रमाण देते हैं।
- ज्ञानरंजन
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