पाठक खूब अच्छी तरह 'अजातशत्रु' के लेखक -- जिनसे हिन्दी परिचित हैं -- हिन्दी के उन इने-गिने लेखकों में से हैं जिन्होंने मातृभाषा में मौलिकता का आरम्भ किया है। उनकी कृतियाँ मौलिक हैं : यही नहीं, वे महत्वपूर्ण भी हैं।
यों तो उनकी रचना और शैली में सभी जगह उत्कृष्टता है ; पर उनके नाटक तो हिन्दी - संसार में एक दम नई चीज हैं। वे आज की नहीं, आगामी कल की चीज हैं। वे हिन्दी-साहित्य में एक नये युग के विधायक हैं । न विचारों के खयाल से, न कथानक के खयाल से, न लक्ष्य के खयाल से आज तक हिन्दी में इस प्रकार की रचना हुई है, न अभी होती ही दीख पड़ती है।
हाँ, वह समय दूर नहीं है जब 'विशारा' और 'अजातशत्रु' के आदर्श पर हिन्दी में धड़ाधड़ नाटक निकलने लगेंगे। परन्तु वे अनुकरण मात्र होंगे । 'प्रसाद' जी की कृतियों के निरालेपन पर उनका कोई असर न पड़ेगा ।
सम्भव है कि हमारा कथन बहुतों को व्याजस्तुति मात्र जान पड़े, पर समय इन पंक्तियों की सत्यता साबित करेगा। अस्तु, हम प्रकृत विषय से अलग हुए जा रहे हैं
बंग- साहित्य-प्रेमियों के एक दल द्वारा अत्यन्त समादृत नाट्यकार द्विजेन्द्र बाबू का कथन है-- "जिस नाटक में अन्तर्द्वन्द्व दिखाया जाय वही नाटक उच्च श्रेणी का होता है अन्तर्विरोध के रहे बिना उच्च श्रेणी का नाटक बन नहीं सकता। "यह सिद्धान्त किसी अंश में ठीक है, क्योंकि ऐसा होने से काव्य में प्रशंसित लोकोत्तर चमत्कार बढ़ता है। किन्तु, यही सिद्धान्त चरम है, ऐसा मानना कठिन है; क्योंकि अन्तर्विरोध से वाह्यद्वन्द्व जगत्, का उद्भव है और इस वाह्यद्वन्द्व का कालक्रम से शीघ्र अवसान होता है -- इसी का चित्रण कवि के अभीष्ट को शीघ्र समीप ले आता है ।
- प्राक्कथन से
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