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प्रकृति अपना हर काम आनन्द से करती है। हर मौसम, हर दिन और हर रात में एक प्रवाह है, आनन्द है। प्रकृति का हर जीव नयी संरचना मुग्ध होकर करता है। मुग्धता कभी गलत नहीं हो सकती। इसे इस तरह से समझना ज़रूरी है कि जिस क्रीड़ा से स्त्री और पुरुष निकट आते हैं, दो से एक बनते हैं और आनन्द से विभोर होते हैं, उसमें सही-गलत क्या हो सकता है? इश्क और वासना के बीच की दूरी सूत भर है। दोनों ही प्रकृति दत्त है। इन्सान की ज़रूरत भी। जब तक हम इस विषय पर खुलकर बोलेंगे नहीं, मनपसन्द लिखेंगे नहीं, पढ़ेंगे नहीं, तो अलमारी के बन्द कोनों और बिस्तर में तकिये के नीचे की तलहटी में अँधेरा बढ़ता ही जायेगा।
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