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हीरा जी मेडिकल कालेज (पटना) का छात्र था और अफ़वाह फैल रही थी कि उसका दिमाग फिर गया है। औज-मौज में हज़ार-पाँच सौ। रुपये फेंक-फूँक दे तो ठीक है। सौ-पचास लगाकर गाँधीजी और नेहरू जी की रजत-प्रतिमाएँ बनवा ले तो ठीक है। मगर कम्युनिस्टों की संगत में वक़्त गँवाये, छठे-छमाहे दस-पाँच रुपये उनकी पार्टी को चन्दा दे, स्टूडेंट फेडरेशन द्वारा चलाई गयी तहरीकों में दिलचस्पी ले, तो अवश्य ही उसका मस्तिष्क विकृत हो गया है... अभिजातवर्गीय आलोचना का कुछ ऐसा ही रुख था हीरा जी के बारे में। लेकिन मोहन माँझी तो बिल्कुल दंग रह गया था उसकी भावुकता देखकर! साइकिल नयी नहीं थी, दो-तीन साल पुरानी थी। मगर इससे क्या? एक श्रद्धालु की तरफ़ से अर्पित नैवेद्य तो थी वह ! माँझी जनसामान्य की आस्था का अद्भुत पारखी था। उसे लगा कि 'ना' कर देने पर हीरा जी को हफ्तों नींद। नहीं आयेगी; यह कोई अनिवार्य शर्त नहीं है। 'कि दादा-परदादा और बाप-चाचा जालिम ज़मींदार रहे हैं तो यह भी उन्हीं का अनुगमन करेगा। / "देखो मंगल, अब हम छोकरा-छोकरी नहीं रहे! धूल-मिट्टी के बचकाने खेल काफ़ी खेल चुके। सयाने समझकर माँ-बाप और सास-ससुर ने तुम पर जो ज़िम्मेदारी सौंपी है उससे जी चुराना कायरता होगी। तुम्हें अपनी घरवाली के प्रति वफ़ादार होना है, मुझे अपने घरवाले के प्रति । गाँव-गँवई के हम सीधे-सादे लोग ठहरे। हमारा प्रेमनगर कहीं समाज से अलग या संसार के बाहर आबाद हुआ है? सुनती हूँ, बड़े आदमी जब और कामों से ऊब उठते हैं तो दिल के टुकड़े इधर-उधर फेंका करते हैं और दसियों घर बर्बाद कर छोड़ते हैं। मैं तुम्हारा घर बर्बाद नहीं करना चाहती मंगल, मैं नहीं चाहती कि एक औरत की सिन्दूरी माँग पर कालिख पोतती रहूँ।.."
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