Darpan Abhi Kaanch Hi Tha

Teji Grover Author
Paperback
Hindi
9789388684484
1st
2019
118
If You are Pathak Manch Member ?

प्रिय तेजी मैम,

(आपके कविता संग्रह को पढ़ते हुए)

'दर्पण अभी काँच ही था' मगर उसमें कविता रूपी धनक के सातों रंग अपने समग्र वैभव में बखूबी उजागर हो रहे थे। मैं अभी इसमें उतर ही रही थी कि एक नाम मेघाछन्न आकाश की तरह मेरे पाठक-मन पर सघन होने लगा। वह नाम जो बारम्बार उच्चारा गया, पन्ने दर पन्ने उकेरा गया। लिखा नहीं बल्कि स्मृति की रोशनाई से पुकारा गया। जिसे ताकती हुई कोई बिल्ली बैठी थी, ओट से जिसे निहार कर कोई दबे पाँव लौट गया था ।

दर्पण जो अभी काँच था, दरअसल वह काँच भी नहीं, एक नदी की थकान पर अपने कपाट खोलता हुआ कोई द्वार था। जिसके कूल-किनारे दुर्बल चन्द्रिका की करुण आभा में ध्यानलीन मन पर अक्षरों के पुष्प झर रहे थे। सांसारिक विसंगतियों पर कवि की मुँदी आँख सिसक रही थी ।

धूप से ठण्डी पड़ी दीवार और ज़हरीले समुद्र-तट पर पीली तितलियों से भरे काशनी फूल थे । नित्य ही शब्दों की प्रतीक्षा में, लगभग प्रार्थना करती-सी कवि चेतना ।

“मछली पकड़ता है

अक्स पर अपनी चोंच टिकाये

बगुला”

काँच जो अभी दर्पण नहीं था, पीड़ा और प्रेम के दो पाटों को आपस में गूँथता कोई सेतु था। कोई चित्र-वीथी, कोई अनूठा लोक... जहाँ हो रही काव्य-वृष्टि में सराबोर कवि तेजी कविता की ही बाट जोहती रियोकान की कथा ओढ़े कभी बरगद के फूलों का टपकना देखती हैं तो कभी इस बीहड़ और निर्मम काल में एकाग्र हो समस्त जीव-जगत के प्रति असम्भव प्रेम रचती हुई दर्पण को काँच में सम्भव करती हैं ।

“माँगी है क्षमा पाखियों और मनुष्य के शिशुओं से

और कई नर-मादा सर्पों से

जिनकी सभ्यताएँ छीन ली गयी हैं"

निरन्तर साकार होते दृश्यों की अनुगूँजों और बिम्बों की सुगढ़ कसीदाकारी के बीच भाषा जहाँ भाव का सम्बल हो, ऐसे अनूठे, समृद्ध रचना-जगत की सूक्ष्म अन्तर्ध्वनियों को सुनते हुए उसमें विचरने का सुख अवर्णनीय है। दर्पण अभी काँच था इसलिए पाठक को अपने आर-पार जाने का मार्ग अत्यन्त सुगमता से उपलब्ध कराने के साथ ही कहीं वह अवकाश भी रचता है, जहाँ उसके आन्तरिक और बाह्य, लौकिक व पारलौकिक दोनों संसारों से रूबरू होते हुए उनमें अवस्थित रहकर एक सहज संवाद व एकात्म स्थापित किया जा सके।

- पारुल पुखराज


एक कविता आपके मन में कंकर की तरह गिरे - ना, कविता नहीं, उसकी पंक्ति; उसका कोई बिम्ब, उसका विन्यास, उसकी ध्वनि, उसका उपलब्ध अर्थ के पाश से फिसलना और अपनी इयत्ता में अनगिनत वलय बनाते रहना : तेजी (जी) की कविता यही करती है। मैं कितनी ही बार उनकी किसी पंक्ति की पता नहीं किस चीज़ में अटक जाता हूँ। अटक जाना ही मेरे पाठक का हासिल है।

- आशुतोष दुबे

तेजी ग्रोवर (Teji Grover)

तेजी ग्रोवर वर्ष 1995-1997 के दौरान प्रेमचंद सृजनपीठ, उज्जैन की अध्यक्षता एवं वर्ष 1989 में भारतभूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार, 2003 में रज़ा फाउंडेशन फेलोशिप और वरिष्ठ कलाकारों हेतु नेशनल कल्चरल फ़ेलोशि

show more details..

My Rating

Log In To Add/edit Rating

You Have To Buy The Product To Give A Review

All Ratings


No Ratings Yet

E-mails (subscribers)

Learn About New Offers And Get More Deals By Joining Our Newsletter