विश्वनाथप्रसाद तिवारी का आलोचक व्यक्तित्व मूल्यवादी दृष्टि से समृद्ध दिखाई देता है। वे सदैव रचना को केन्द्र में रखकर विचिन्तन करते हैं। इसलिए अपनी आलोचना में वे एक निष्कवच सहृदय का परिचय देते हैं। विचारों की कट्टरता का उन्होंने खण्डन किया है। ऐसी आलोचना की संकुचित दृष्टि का भी उन्होंने विरोध किया है। रचना का सौन्दर्य उनकी आलोचना का मूल मन्त्र है। रचना जो सौन्दर्य प्रतीति देती है उसको व्यापक परिप्रेक्ष्य में लक्षित करना वे अपनी आलोचना का दायित्व समझते हैं। लेकिन उनकी सौन्दर्य चेतना मनुष्य निरपेक्ष नहीं है। इसलिए प्रगतिचेतना को भी वे आसानी से समाविष्ट कर पाते हैं। उसके लिए, उनके अनुसार, वैचारिक घेरेबन्दी की ज़रूरत नहीं है। वैचारिकता मनुष्य केन्द्रित हो, यही वे चाहते हैं। इस कारण से उनकी आलोचना रचनात्मकता की पक्षधरता को व्यक्त करती है। विश्वनाथप्रसाद तिवारी की आलोचना के सन्दर्भ में हम ऐसा भी कह सकते हैं कि आलोचना भी रचना है।
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