सृजनात्मकता मानव जीवन का बल्कि कहें कि अस्तित्व मात्र का बीज भाव है। संस्कृति की प्रक्रिया सृजनात्मकता के इस बीज भाव के चैतसिक अंकुरण, पल्लवन और सुफल होने की प्रक्रिया है। आचार्य नरेन्द्र देव ने संस्कृति को परिभाषित करते हुए उसे 'मानव चित्त की खेती' कहा है। मानव चेतना विमशात्मक भी होती है और संवेदनात्मक अथवा अनुभूत्यात्मक भी। साहित्य और सांस्कृतिक संवेदना दोनों एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। सांस्कृतिक संवेदना साहित्य का उत्स होती है और परिणाम भी। कोई भी रचना समाज में ही पोषित होती है। संस्कृति से प्राप्त कच्चे माल को अपनी कारयित्री प्रतिभा के योग से साहित्यकार नयी आकृति देता है और साहित्य संस्कृति को समृद्ध करता है। हिन्दी साहित्य में मूल्य-चर्चा और देश तथा समाज के स्तर पर सांस्कृतिक संवेदना को पहचानने की कोशिश अपर्याप्त रही। इनमें अक्सर संस्कृति की चर्चा से बचा जाता रहा है। साहित्य में एक तरह का लोकधर्मी रुझान प्रबल होने लगा। साहित्य सामाजिक संस्थाओं जैसे-जाति, धर्म, राजनीति, आदि से मुखातिब होने लगा। कभी-कभी तो वह स्वयं एक सामाजिक संस्था का रूप लेने लगा और राजनीतिक औज़ार बनने लगा। ऐसे में साहित्य के सांस्कृतिक विमर्श की आवश्यकता और प्रासंगिकता को ध्यान में रखते हए विद्याश्री न्यास ने अपने एक संवत्सर उपकर्म को 'हिन्दी साहित्य में सांस्कृतिक संवेदना
और मूल्यबोध' पर केन्द्रित अन्तरराष्ट्रीय संगोष्ठी एवं भारतीय लेखक-शिविर के रूप में आयोजित किया। विद्याश्री न्यास इस सारस्वत आयोजन में और इसके संयोजन में सहभागी, सहयोगी सभी सृहृदजनों के प्रति चिरकृतज्ञ है। यह पुस्तक उन्हीं के विद्या वैभव, प्रेम और परिश्रम का प्रतिफल है। यदि हम भारतीय संवेदनात्मक चित्त की विकास प्रक्रिया पर गौर करें तो निस्सन्देह इस चित्त की निर्मित में किसी भी शास्त्र से कहीं अधिक भूमिका साहित्य की है। रामायण और महाभारत ने भारत के सांस्कृतिक चित्त को जितना रचा है। उतना किसी भी शास्त्र ने नहीं। तात्पर्य यह कि साहित्य की प्रक्रिया संस्कृति को किन्हीं शास्त्रीय अवधारणाओं की पुष्टि करने के लिए नहीं बल्कि मानव चित्त की संवेदनात्मकता को पुनर्नवा करने की ओर प्रवृत्त होती है।
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