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प्रसाद के तीन नाटक- चंद्रगुप्त, स्कंदगुप्त और ध्रुवस्वामिनी चंद्रगुप्त, स्कंदगुप्त और ध्रुवस्वामिनी – उनके सभी नाटकों में सबसे ज़्यादा चर्चित रहे हैं। मात्र पाठ्य पुस्तक के रूप में ही नहीं वरन् अपने प्रस्तुतीकरण को लेकर भी । जहाँ पहले दोनों नाटक अपनी अनेकानेक प्रस्तुतियों के बावजूद प्रदर्शन एवं अभिनय सम्बन्धी प्रश्नों एवं समस्याओं से घिरे रहे हैं, वहाँ ‘ध्रुवस्वामिनी' सम्भवतः सबसे ज़्यादा प्रदर्शित नाटक तो है ही, इससे भी ज़्यादा महत्त्वपूर्ण बात यह है कि प्रदर्शन एवं अभिनय से सम्बद्ध सबसे कम आपत्तियाँ इसी नाटक पर उठायी गयी हैं। इससे नाटक की सफलता एवं लोकप्रियता स्वयंसिद्ध है ।
कथ्य के साथ ही जुड़ा हुआ जो दूसरा पहलू है, वह है इस नाटक का शिल्प एवं शैली । जिस रूप एवं संरचना की खोज में प्रसाद अपने सभी नाटकों के माध्यम से लगे रहे, उन सबका मानो निचोड़ है 'ध्रुवस्वामिनी', इसीलिए यह उनका अन्तिम नाटक भी है। अपने कलेवर में सुगठित एवं एक ऐसी संक्षिप्तता लिए हुए जो प्रसाद के अन्य नाटकों में दुर्लभ है। पूरे नाटक में केवल तीन अंक हैं और तीनों अंकों में एक-एक दृश्य। इतना ही नहीं, प्रत्येक अंक में केवल एक ही दृश्यबन्ध अथवा परिवेश- स्थान, समय और कार्य-व्यापार की अद्भुत समन्विति है ।
- देवेन्द्र राज अंकुर
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