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सतत परिवर्तन-परिदृश्य की पटकथा है हरियश राय की कहानियाँ । आप जहाँ पाँव रखना चाहते हैं, आप हैरान रह जाते हैं कि वह जमीन तो खिसक चुकी है, पाँव कहीं और जा पड़े हैं। हम कैसे समय में आ गये हैं। एक भँवर है जो कहीं टिकने नहीं देता, जो धरती से आकाश तक को किसी ब्लैक होल में सड़कता जा रहा है। यहाँ न प्रतिभा की कोई प्रशंसा है, न श्रम का सम्मान । जो हमारी हर शै को नियन्त्रित कर रहा है, वह कुछ और ही नियन्ता है - बाजार ! पूँजी ! मुनाफा ! फरदीन खिलौने बनाने वाले का बेटा है। पिता अच्छा कारीगर है। अब खिलौनों का कोई खरीददार नहीं। लोगों की रुचियाँ बदल चुकी हैं, बल्कि कहा जाय बाजार ने बदल दी हैं। अब उन्हें कुछ और चाहिए, खिलौने नहीं, फोटो या म्यूरल फ्रेमिंग हैं। मुनाफे या बचे रहने की चाहत, मज़हबी बंदिशें भी नहीं रोक पातीं। (जहाँ मूरते कुफ्र है) फरदीन में प्रतिभा है, समझ है। वह सरगैब्रिन बनना चाहता है, एक नये गूगल का स्रष्टा, पर गरीबी ने पाँवों में बेड़ियाँ डाल रखी हैं। यह भँवर है। उसे निगल कर किस रसातल में गर्क करेगा, उसे नहीं मालूम।
अन्न-जल में यह भँवर का लोभनीय चेहरा ओढ़ कर आता है सत्ता को उसी की दलाली करनी पड़ रही है। 1 किसान और किसानी कभी समाज के मुकुट हुआ करते थे, पर अब किसान अपने पोते के जीवन-दर्शन से हार जाता है कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को जमीन बेच कर पैसे निकाल लेने चाहिए, जमीन में क्या रखा है?
हरियश राय का दूसरा आघात बिन्दु है अन्धश्रद्धा । पिछले कुछ वर्षों से श्रम, विवेक और आत्मसम्मान खोकर पढ़े-लिखे नौजवान तक इस रोग की चपेट में आते जा रहे हैं। कैंसर की तरह कुछ एक पागल कोशिकाओं का रोग है यह। प्रसन्नता की बात है, हरियश राय के पात्र इस कैंसर को पहचानने लगे हैं, और इसकी कीमोथेरेपी या उपचार को भी।
- संजीव
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