स्वदेश के फि़राक़ -
प्रारम्भ में बाबू रघुपति सहाय ने गद्य लेखन किया, अनूदित और मौलिक दोनों उनका गद्य लेखन कई रूपों में सामने आया, मसलन निबन्ध लेख, कहानी संस्मरण, आलोचना फ़ीचर और सम्पादकीय लेखन। गद्य-लेखन के इन विविध लेखनों में वे अपने समकालीन हिन्दी लेखकों से बीस रहे। उनमें नवचिन्तन के अनेक परिदृश्य उभरे। उन्होंने तद्युगीन लेखकीय विचारधाराओं में भारी परिवर्तन किया। अगर सच पूछा जाय तो स्वदेश ही बाबू रघुपति सहाय, बी.ए. के लेखन का इब्तिदाए ज़माना था। इसी 'स्वदेश' ने उन्हें 'शुक्रवार फाल्गुन शुक्ल 15 सम्वत् 1983' यानी 18 मार्च, 1927 को इन्हें फ़िराक़ बना दिया। यह था ‘स्वदेश' की अदबतराशी। तराशिद थे दशरथ प्रसाद द्विवेदी जो स्वयं हिन्दी, अंग्रेज़ी तथा उर्दू फ़ारसी के अच्छे ज्ञाता थे। 15 सितम्बर, 1919 फ़िराक़ के साहित्यकार का प्रथम दिन था। 'डानजुअन या दीर्घायुनीर' के अनुवाद में सर्जना का जौजाद था वह अनुपमेय और अतुलनीय था। 20वीं सदी के दूसरे दशक में शायद ही किसी के अनुवाद में रघुपति सहाय जैसी जीवन्तता, में ताज़गी और तपिश रही हो। इस अनुवाद में रघुपति सहाय बी.ए. और फ़िराक़ दोनों का ज़िन्दगीनामा दर्ज है। इस अनुवाद में जो सैंक्सुअल्टी, कामुकता और बे-अदब बिम्बों का विन्यास हुआ है, वही फ़िराक़ की रचना-प्रकृति को समझने का सूत्र यानी 'अथातो फ़िराक़ जिज्ञासा है।'
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