Balak Sheoraj : Maha Shilakhandon Ka Sangram

Hardbound
Hindi
9789350727096
1st
2014
120
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बालक श्यौराज -
यह डॉ. श्यौराज सिंह ने अच्छा किया कि अपनी आत्मकथा 'मेरा बचपन मेरे कन्धों पर' लिख दी है। उन्होंने यह और भी अच्छा किया कि अपने बचपन को इतनी गहराई और इतने विस्तार से हमारे सामने रख दिया। यह भारतीय बच्चों पर उनका उपकार है। इस पुस्तक की वजह से लोगों को इस व्यक्ति के प्रति कृतज्ञ होना चाहिए। यह व्यक्ति पढ़े-लिखों के लिए देवता है। जब यह पुस्तक आयी थी, मैंने लेखक से कहा था कि लेखक को यह पता नहीं है कि उन्होंने यह कितनी अच्छी पुस्तक लिख दी है और प्रकाशक को धन्यवाद देते हुए प्रकाशक से कहा था कि प्रकाशक को यह पता नहीं है कि हिन्दी में उन्होंने यह विश्व स्तर की पुस्तक छाप दी है। कहना यह है कि सफल व्यक्ति कहीं भी पैदा हो सकता है – कैसे - यह वह ख़ुद जाने। उसका एक उदाहरण श्यौराज सिंह 'बेचैन' की यह पुस्तक ही है। और हाँ, इस पुस्तक को पढ़ कर शायद अब कौओं की वह काँय-काँय बन्द हो जानी चाहिए कि ग़ैर-दलित भी दलित साहित्य लिख सकते हैं।
इस पुस्तक का उप-शीर्षक 'महा शिलाखण्डों का संग्राम' आजीवक धर्म से लिया गया है। मूल शब्द 'चरिमे महा शिलाखंडे संगामे' है।
यह पुस्तक लिखने के दौरान एक घटना अजीब घट गयी है। यह मेरी चमार जाति के एक वर्तमान लेखक को ले कर है। मैंने विचारों की चोरी की उस घटना पर प्रमाण सहित एक लेख लिखा है। उसे अन्यत्र दे रहा हूँ। यहाँ केवल इतना कह रहा हूँ कि 'सत्ता चक्र' में यह जानना बहुत महत्त्वपूर्ण है कि बाजा बाजा लेखक क्या होता है। इससे मनुष्य की ईगो का संश्लिष्ट मनोविज्ञान, मौजमस्ती का जटिल अर्थशास्त्र और सुविधा भोगी उदारवाद का सस्ता बिकाऊपन-सब कुछ लपेटे में आ जाते हैं। लेखक दुनिया भर के विषयों पर लिखते हैं, पर भारत में ख़ुद लेखकों को विषय बनाया जाना चाहिए कि यह हमारे सामने का पुरातत्त्व है और इतिहास बनने देने से पहले इसे अच्छी तरह खंगाल लेना चाहिए। इस देश के केवल लेखक ठीक होते तो इनकी विदेशियों के लिए पहचान चोरों की, इनके कर्म जारों के और इनकी लिखतें प्रक्षिप्त और किंवदंतियों के झूठ की न होतीं।

डॉ. धर्मवीर (Dr. Dharamveer)

डॉ. धर्मवीर जन्म : 9 दिसम्बर 1950शिक्षा : एम.ए., बी.एससी., पीएच.डी., एम.डी. पी. ए., एम.फ़िल्, डी.लिट्. ।1980 के केरल कैडर के आई.ए.एस. अधिकारी रहे ।प्रमुख कृतियाँ : महान आजीवक : कबीर, रैदास और गोसाल (2017), कबीर : 'खसम खुश

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