नये आलोचकों द्वारा लिखी जानेवाली हिंदी आलांचना की कई सीमाएँ हैं। गैर मार्क्सवादी आलोचना साहित्य के सामाजिक संदर्भ को तो अंशतः या पूर्णतः अस्वीकार कर चल ही रही है, वह भाषा में लगातार ऐसे चालू शब्दों की भी भरती करती जा रही है, जिनका अर्थ एक बड़ी हद तक अनिश्चित है। मार्क्सवादी आलोचना में प्रायः मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र की बुनियादी और सुपरिचित अवधारणाओं की भी समझ की कमी दिखलाई पड़ती है, जिसके परिणामस्वरूप हिंदी की नई मार्क्सवादी आलोचना एक ओर संकीर्णतावाद की शिकार है और दूसरी ओर उदारतावाद की । नन्दकिशोर नवल हिंदी के ऐसे नये आलोचक हैं, जिनकी आलोचना 'चमचमाते वाग्जाल' से मुक्त है और जिन्होंने मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र की निर्भ्रात समझ के आधार पर समकालीन और निकट पूर्व के हिंदी साहित्य की व्याख्या तथा मूल्यांकन का प्रयास किया है। उनकी अन्य विशेषता यह है कि वे हिंदी की परंपरागत प्रगतिशील आलोचना की ओर से विमुख नहीं हैं और उनमें साहित्य तथा आलोचना की ग्रंथियों में प्रवेश करने की भरपूर क्षमता है। प्रस्तुत पुस्तक में मुख्यतः कविता-संबंधी उनके चुने हुए पंद्रह निबंध संगृहीत हैं जिनसे इस कथन की पुष्टि होती है।
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