अज्ञेय एक ऐसे सर्जक साहित्यकार हैं, जिनकी सर्जक मनीषा सृजन की विभिन्न दिशाओं में न केवल प्रवेश करती है बल्कि प्रत्येक दिशा में लीक तोड़ती है, नयी राहों का अन्वेषण करती है, नया रचती है। उपन्यास हो, कहानी हो, कविता हो, यात्रा-वृत्तांत हो, पत्रकारिता अथवा संपादन का क्षेत्र हो, सर्वत्र उन्होंने अपनी छाप छोड़ी है। उनकी दृष्टि में सर्जक स्रष्टा, द्रष्टा और दाता होता है। वे अपनी इस मान्यता पर सही उतरे हैं। उन्हें निःसंकोच सर्जक मनीषा का प्रतीक-पुरुष कहा जा सकता है। सिसृक्षा का दबाव और ताप निरंतर अनुभव करते रहना उनकी प्रकृति का अभिन्न अंग रहा है। कवि अज्ञेय के साक्ष्य से हम जानते हैं कि रचना हमें मुक्त करती है, रचना कुछ कहती नहीं करती है, रचना हमें बदल देती है।
अज्ञेय का काव्य-संसार 'होने का सागर' में से उद्भूत 'अर्थ' का - अर्थ - वैभव का संसार है। उसमें अर्थ से रँगी हुई प्रकृति है, नारायण की व्यथा लिये नर है, मानवीय यथार्थ है, रागदीप्त सत्य है, आत्मान्वेषण है, महामौन की दिग्विहीन सरिता है।
'अज्ञेयः कवि और काव्य' नामक पुस्तक में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने पूरी निष्ठा से यह प्रयास किया है कि अज्ञेय का काव्य-संसार अपने विविध रंगो, परिदृश्यों, संवेदनाओं, विचार-दृष्टियों एवं वैशिष्ट्य के साथ पाठकों के समक्ष प्रस्तुत हो सके । यद्यपि लेखक यह मानता है कि अज्ञेय समीक्षा की किसी सीमा में बँधने वाले अथवा उससे पूरी तरह 'ज्ञेय' हो सकने वाले कवि नहीं हैं तथापि उसके इस प्रयास से अज्ञेय के वैभवपूर्ण काव्य-संसार की भरपूर झाँकी मिल सकेगी, इसमें संदेह नहीं ।
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