Inder Singh Namdhari

इन्दर सिंह नामधारी का जन्म 1940 में एक छोटे से गाँव नीशेरा खोजियों में हुआ, जो अब पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त में है। अगस्त 1947 में देश के बंटवारे के दौरान लाखों शरणार्थियों की तरह उनका परिवार भी बेघर हो गया। विहार का गुमनाम सा डालटनगंज उनका आखिरी पड़ाव बना ।

1950 के आखिरी दौर में प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू जब देश के युवकों को इंजीनियर बनने का आहान कर रहे थे तब नामधारी भी उस भीड़ में शामिल हो गये। बंटवारे में ही पाकिस्तान के शेखुपुरा शहर से बेघर हुए नरूला परिवार की एक लड़की उनकी हमसफ़र बनी, जिसका छोटा भाई आगे जाकर 'निर्मल बाबा' के नाम से मशहूर हुआ। 1960 के दशक में देश में चल रही राजनीतिक उथल-पुथल के बीच नामधारी की अपनी कहानी लिखी जाने लगी। गोरक्षा आन्दोलन के दौरान वे जनसंघ के क़रीब आ गये और दो बार डालटनगंज से पार्टी के प्रत्याशी बने लेकिन चुनाव जीत नहीं सके।

1970 के दशक में जेपी आन्दोलन की ऐसी आंधी चली कि प्रधानमन्त्री इन्दिरा गाँधी ने इमरजेंसी का ऐलान करा दिया। नामधारी ने लगभग दो साल जेल की सलाखों के पीछे गुज़ारे। 1980 में भाजपा का जन्म हुआ और नामधारी पहली बार डालटनगंज से विधायक चुने गये। प्रधानमन्त्री इन्दिरा गाँधी की हत्या से भड़के 1984 के सिख विरोधी दंगों में एक हिन्दू-बाहुल्य सीट का सिख प्रतिनिधि होना उनके लिए काफी तनावपूर्ण रहा। 1990 का दशक मण्डल बनाम कमण्डल का था नामधारी ने मुस्लिम-यादव (एमवाई) के तुष्टीकरण की राजनीति भी देखी। नामधारी तीसरी बार डालटनगंज से जीते और मन्त्री वन गये।

नामधारी के जीवन का हर दशक उन्हें एक नयी दिशा की ओर ले गया। 2000 में झारखण्ड का निर्माण हुआ जिसको बनाने की मांग पहली बार उन्होंने ही आगरा में 1988 में हुई भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में रखी थी। 2009 का लोकसभा चुनाव वे निर्दलीय ही लड़े और उनकी दिल्ली जाने की इच्छा भी पूरी हो गयी।

वह नवगठित राज्य के पहले स्पीकर बने। इसी दौरान एक ऐसी घटना भी घटी जिसने उन्हें अलौकिक शक्तियों पर सोचने के लिए मजबूर कर दिया। उनके छोटे साले निर्मलजीत सिंह नरूला तीन दशकों तक कोई काम-धन्धा न चलने के बाद 'निर्मल बाबा' का रूप धारण कर चुके थे। 2011 में साले ने जीजे को सतर्क रहने की चेतावनी दी और अगले साल जीजे ने साले को दोनों ही भविष्यवाणियों सच साबित हुई। नामधारी का मीत के साथ करीबी साक्षात्कार हुआ और प्रकृति ने उन्हें एक बार फिर जीवनदान दे दिया। क्या इसके पीछे ईश्वरीय शक्तियाँ थीं या अलोकिक ? 'यह किताब सिर्फ़ नामधारी का सफ़रनामा भर नहीं, न ही बिहार-झारखण्ड की तत्कालीन राजनीतिक स्थिति को समझने का दस्तावेज़, बल्कि देश की राजनीतिक दास्तान के कुछ अनछुए प्रसंग भी इसमें शामिल हैं - यह कहना है, प्रभात खबर के पूर्व सम्पादक और राज्यसभा के वर्तमान उपाध्यक्ष श्री हरिवंश का, जिन्होंने इस आत्मकथा की भूमिका लिखी है।

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