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सुशील गुप्ता

सुशील गुप्ता 

लगता है, मैं किसी ट्रेन में बैठी, अनगिनत देश, अनगिनत लोग, उनके स्वभाव-चरित्र, उनकी सोच से मिल रही हूँ और उनमें एकमेक होकर, अनगिनत भूमिकाएँ जी रही हूँ। ज़िन्दगी अनमोल है और जब वह शुभ और सार्थक कार्यों और सरोकारों से जुड़ी हो, तभी हम इन्सान बन पाते हैं। लेकिन, अपनी समूची ईमानदारी और सच्चाई के बावजूद, मेरी राह, मेरे रिश्ते, मेरी ज़िन्दगी गडमड हो गयी। मुखौटे पहने खुदगर्ज़, क्रूर लोग, मुझे मौत की यतीम खाई में धकेलकर, जब ज़िन्दगी का जश्न मनाने चल पड़े, तो औरों के सच... और ख़्यालों.... और तजुर्बे के अनुवाद और अनुकृति ने मुझे थाम लिया - मैं हूँ न ! और मेरी राह गुम होने से बच गयी। ये अनुकृतियाँ इस बात की सनद हैं कि सरोकारों में सच भी है और झूठ भी । जिसे, जो नसीब हो या हम जो भी चुन लें, हमें सुविधा है।

अब तक लगभग 50 उपन्यासों का अनुवाद! 3 काव्य-संग्रह ! कई-कई पुरस्कारों सहित, अपने हिन्दी पाठकों के अमित प्यार का पुरस्कार ।