Ameeta Parsuram 'Meeta'
मीता' का सफ़र
डॉ. अमीता परशुराम 'मीता' की पैदाइश दिल्ली में सन् 1955 में हुई। इनके वालदाइन, पार्टिशन के वक़्त, गुजराँवाला, पाकिस्तान से दिल्ली आये थे। क्योंकि इनके घर में बोली जाने वाली ज़बानों में, पंजाबी और उर्दू का ज़ोर रहा, मीता की शायरी में भी इन दोनों रंगों का इम्तिज़ाज देखने को मिलता है।
मीता जिन शायरों के कलाम से मुताअस्सिर हुईं, उनमें सबसे पहला नाम है साहिर लुधियानवी का है। उनके अलावा नासिर काज़मी और परवीन शाकिर ने भी मीता के शेरी सफर में एक मख़्सूस रोल अदा किया... और फिर गालिब, मीर, फैज़, मजाज़ और फ़िराक पढ़ना तो हर कदम पर लाज़मी था।
दाग देहलवी, दिल्ली घराने के अन्दाज़ का मीता की शायरी पर दो तरह से असर वाजेह तौर पर नज़र आता है बेबाक बयानी और मिसरों में रवानी !
मिसाल के तौर पर... ये शेर...
"उसने मेरी ही रफाक़त को बनाया मुल्ज़िम मैं अगर भीड़ में थी, वो भी अकेला कब था"
मीता बचपन से ही कविता, शेर और आज़ाद नज़्में लिखती रहीं। और नफ्सियाती तालीम हासिल करने के बाद मीता की शायरी ने एक मुन्फरिद अन्दाज़ और मुकाम हासिल किया।
माहिर-ए-नफ्सियात होने की वजह से, मीता की शायरी, पढ़ने वालों की ज़िन्दगियों से जुड़कर उनके दिल में एक ख़ास जगह बना लेती है...
पद्मश्री शायर, नाज़िम और एक अज़ीम शख़्सियत (स्वर्गीय) जनाब अनवर जलालपुरी का कहना है कि, "अमीता परशुराम की शायरी में नारी के पाकीज़ा जज़्बात और अहसासात की ताज़गी है। उनकी शायरी में जागती हुई आँखों की बेचैनी और सोयी हुई आँखों के सपने हैं। प्यार, मोहब्बत और इश्क के साथ साथ, इन्सानी चेहरों के बदलते हुए रंगों की तस्वीर बनाने के हुनर से अमीता जी अच्छी तरह वाकिफ हैं। उनके अशआर में संगीत है... उनकी ग़ज़लें जब मौसीकी में ढल जायें तो ऐसा असर रखती हैं जो कभी ख़त्म नहीं हो पाता। मेरी नेक तमन्नाएँ उनकी खूबसूरत शायरी के साथ हैं।"