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अरविन्द गौड़

अरविन्द गौड़

अरविन्द गौड़ धारा के समानान्तर न चलकर, विपरीत दिशा में चलने वाले ऐसे लेखक, निर्देशक हैं जिन्होंने अपने रंगकर्म में सत्ता के बजाय हमेशा समाज के हाशिये पर रहने वाले वंचितों, उत्पीड़ितों के साथ खड़ा होना कबूला है। जहाँ भी किसानों, मज़दूरों, बेरोज़गारों की लड़ाई होती है, अरविन्द गौड़ का थियेटर वहाँ मौजूद रहता है। किसी तरह का जुल्म हो, अस्मिता के काले कुर्ते वाले रंगकर्मी मोर्चे पर डटे हुए दिखते हैं। डफली पर दिया गया थाप सत्ता के गुम्बद को हिलाने जैसा लगता है।

अरविन्द गौड़ मंच और नुक्कड़ दोनों जगहों पर एक साथ पुरजोर दस्तक देते हैं। इनके लिखे-निर्देशित नाटक नुक्कड़ नाटक की उस ज़मीन को उर्वर करते हैं जिसे सिस्टम और कॉर्पोरेट अधिग्रहण कर अपनी सत्ता के प्रचार और मार्केट के लिए पिछले कुछ दशकों से टूल्स की तरह इस्तेमाल करते रहे हैं। प्रगतिशील और जनवादी विचारधारा के अरविन्द गौड़ अपने तेवर, भाषा और कहने के अन्दाज़ में पारम्परिक नुक्कड़ नाट्य आन्दोलन से ज़रा हटकर हैं। वे अपने नाटकों में व्यक्ति के स्थान पर समूह, चरित्र के बदले घटना, भाषा-बिम्ब रचते हैं, घुमा-फिराकर कहने के बजाय सीधी बात करते हैं, नाटक को किसी अन्धी गली में छोड़ने के बजाय एक निर्णय पर ले जाते हैं। सम्भवतः यह उनका नुक्कड़ नाटक का एक नया रंगशिल्प गढ़ने का प्रयास है, जो जनपक्षीय तो है ही, लोकप्रिय भी है। उतना ही इंटेंसिव और मारक भी।

अरविन्द गौड़ समय की नब्ज़ पहचानते हैं और आसपास होने वाले आन्दोलनों से किसी न किसी रूप में रिश्ता बनाये रखते हैं। इसलिए वे जिस इंटेंसिटी से बलात्कार, महिला उत्पीड़न के सवाल को उठाते हैं, पितृसत्तात्मक व्यवस्था पर चोट करते हैं, घरेलू हिंसा से जूझ रही महिलाओं के पक्ष में खड़े होते हैं, वो दर्शकों को अपने पक्ष में करने के लिए कारगर साबित होता है। जहाँ सत्ता की संस्कृति नुक्कड़ नाटक की धारा को अपने प्रचार का भोंपू बनाने पर आमादा है, अरविन्द गौड़ अपने दर्जनों रंगकर्मियों के साथ देश के महानगरों, छोटे शहरों और गाँवों में घूम-घूमकर अस्मिता थियेटर ग्रुप के द्वारा रंग अलख जगा रहे हैं। अरविन्द गौड़ सही मायने में पोलिटिकल थियेटर के एक ऐसे एक्टिविस्ट हैं जो भले इस आन्दोलन में अकेले दिखाई देते हैं, लेकिन उनके पीछे एक व्यापक जन समुदाय दिखाई देता है। और यही नुक्कड़ नाटक आन्दोलन को एक आशा, भरोसा दिलाता है कि नुक्कड़ नाटक अभी ज़िन्दा है। इसकी आग कहीं-न-कहीं अभी भी बरकरार है।

- राजेश कुमार, वरिष्ठ रंगकर्मी एवं नाटककार