Vinod Kumar Shukla
1 जनवरी 1937 को राजनांदगाँव में जन्मे विनोद कुमार शुक्ल बीसवीं शती के सातवें आठवें दशक में एक कवि के रूप में सामने आये। धारा और प्रवाह से बिल्कुल अलग, देखने में सरल किन्तु बनावट में जटिल अपने न्यारेपन के कारण उन्होंने सुधीजनों का ध्यान आकृष्ट किया। अपनी रचनाओं में वे मौलिक, न्यारे और अद्वितीय थे; किन्तु यह विशेषता निरायास और कहीं से भी ओढ़ी या थोपी गयी नहीं थी । यह खूबी भाषा या तकनीक पर निर्भर नहीं थी। इसकी जड़ें संवेदना और अनुभूति में हैं और यह भीतर से पैदा हुई खासियत थी। तब से लेकर आज तक वह अद्वितीय मौलिकता अधिक स्फुट, विपुल और बहुमुखी होकर उनकी कविता, उपन्यास और कहानियों में उजागर होती आयी है । वह इतनी संश्लिष्ट, जैविक, आवयविक और सरल है कि उसकी नकल नहीं की जा सकती।
विनोद कुमार शुक्ल कवि और कथाकार हैं। दोनों ही विधाओं में उनका अवदान अप्रतिम है। पिछले दशकों में उनके चार उपन्यास ('नौकर की कमीज' वर्ष 1979, 'खिलेगा तो देखेंगे' वर्ष 1996, 'दीवार में एक खिड़की रहती थी' वर्ष 1997, 'हरी घास की छप्पर वाली झोंपड़ी और बौना पहाड़' वर्ष 2011), दो कहानी संग्रह ('पेड़ पर कमरा वर्ष 1988, 'महाविद्यालय' वर्ष 1996), छह कविता संग्रह ('लगभग जयहिन्द' वर्ष 1971, 'वह आदमी चला गया नया गरम कोट पहिनकर विचार की तरह' वर्ष 1981, 'सब कुछ होना बचा रहेगा' वर्ष 1992, 'अतिरिक्त नहीं' वर्ष 2000, 'कविता से लम्बी कविता' वर्ष 2001, ‘आकाश धरती को खटखटाता है' वर्ष' 2006) प्रकाशित हुए।
उनकी रचनाओं ने हिन्दी उपन्यास और कविता की जड़ता और सुस्ती तोड़ी तथा भाषा और तकनीक को एक रचनात्मक स्फूर्ति दी है। उनके कथा साहित्य ने बिना किसी तरह की वीरमुद्रा के सामान्य निम्न मध्यवर्ग के कुछ ऐसे पात्र दिए जिनमें अद्भुत जीवट, जीवनानुराग, सम्बन्धबोध और सौन्दर्य चेतना है; किन्तु यह सदा अस्वाभाविक, यत्नसाध्य और 'हिरोइक्स' से परे इतने स्वाभाविक, निरायास और सामान्य रूप में हैं कि जैसे वे परिवेश और वातावरण का अविच्छिन्न अंग हों। विनोद कुमार शुक्ल का आख्यान और बयान - कविता और कथा दोनों में; मामूली बातचीत की मद्धिम लय और लहजे में, शुरू ही नहीं ख़त्म भी होता है। उनकी रचनाओं में उपस्थित शब्दों में एक अपूर्व चमक और ताजगी चली आयी है और वे अपनी सम्पूर्ण गरिमा में प्रतिष्ठित दिखाई पड़ते हैं।