ये वो सहर तो नहीं...- ये वो सहर तो नहीं... युवा कथा लेखन के विकासशील प्रान्तर में उज्ज्वल उपलब्धि की तरह उपस्थित पंकज सुबीर का प्रथम उपन्यास है। पंकज सुबीर ने अपने पहले कहानी संग्रह 'ईस्ट इंडिया कम्पनी' से ही पाठकों और आलोचकों का ध्यान आकर्षित किया था। भाषा की पहेलियों और इंटरनेटी विद्वत्ता के बीच कुलेल करते अनेक रचनाकारों के मध्य पंकज सुबीर के रचनात्मक सरोकार आश्वस्त करते हैं। इतिहास और वर्तमान की सहगाथा और समय का संश्लिष्ट रूपक रचते उपन्यास 'ये वो सहर तो नहीं' में पंकज सुबीर कथा-रस और कथा-सिद्धि को रेखांकित करने योग्य दिशाओं का परिचय देते हैं। इस उपन्यास में 'समय-समीक्षा' का एक महाकाव्यात्मक उपक्रम है। 1857 और 2007 के समयों की पड़ताल करते हुए उपन्यास यह देखना चाहता है कि उन सामाजिक मूल्यों का क्या हुआ जिनके लिए इस महादेश में जनक्रान्ति का अभूतपूर्व प्रस्थान निर्मित हुआ था! क्या मुक्ति के महास्वप्न अभी मध्यान्तर में हैं? जड़ता, दासता, शोषण, अन्याय, अस्मिता-संघर्ष तथा दरिद्रता आदि के स्तरों से घनीभूत 'अमानिशा' क्या समाप्त हो सकी है? क्या जिस सुबह का इन्तज़ार असंख्य जनों को था, उसका चेहरा दिख सका? डेढ़ सौ वर्ष से अधिक समय की थाह लगाते हुए लेखक ने प्रकारान्तर से लोकतन्त्र की सामर्थ्य और सीमा को परखा है। साहिर लुधियानवी के प्रबल आशावाद 'वो सुबह कभी तो आयेगी' और फ़ैज़ के मोहभंग 'वो इन्तज़ार था जिसका ये वो सहर तो नहीं' की स्मृति जगाता यह उपन्यास एक उपलब्धि है। 'ये वो सहर तो नहीं...' इस दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है कि यह रक्तबीज जैसी समस्याओं की नाभिनालबद्धता को उद्घाटित करता है। ये समस्याएँ सभ्यता के बढ़ते आवरणों के साथ बहुरूपिया हो गयी हैं। उपन्यास का अन्तिम वाक्य है 'मुक़दमे अभी तक चल रहे हैं, चल रहे हैं, चल रहे हैं'। विश्व-मानवता के न्यायालय में मुक्ति के तमाम मुक़दमों की स्थिति बयान करता यह उपन्यास हमारे समय का विराट बिम्ब है। पंकज सुबीर ने जटिल शिल्प को साधने के साथ भाषा की मर्मान्वेषी प्रकृति का सार्थक उपयोग किया है। भारतीय ज्ञानपीठ के 'नवलेखन पुरस्कार' से सम्मानित 'ये वो सहर तो नहीं...' सामाजिक सरोकार, राजनीतिक विवेक, सभ्यता-समीक्षा और औपन्यासिक उत्कर्ष के लिए निश्चित रूप से महत्त्वपूर्ण माना जायेगा। —सुशील सिद्धार्थ
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