शब्दभेदी - समकालीन क्षितिज पर ग़ज़ल एक हस्ताक्षर का नाम विजय कुमार स्वर्णकार है। समकालीन जीवन के यथार्थ के तमाम काँटों की वेदना से गुज़रते हुए भी ग़ज़ल के फूलों से चुनकर लाने का उनका हुनर विस्मित करने वाला है। सफल सम्प्रेषण का मूल तत्त्व स्वयं से संवाद है। इस शर्त का पालन करते हुए स्वयं से खरे-खरे संवाद के माध्यम से अवाम से उसकी भाषा में बात करने वाले गुरु-ग़ज़ल विजय कुमार स्वर्णकार को सफल सम्प्रेषण क्षमता का दुर्लभ गुण यहाँ भरपूर मिलेगा। इनकी नयी चेतना का स्रोत सजग और अनुशासित शायर का जाग्रत आत्म है जो ग़ज़ल साहित्य में नवजागरण के संवाहक की सीरत और सूरत लिए हुए है। इन ग़ज़लों में तमाम समकालीन विमर्श और विषयों की विविधता का विस्तीर्ण आकाश है। ये ग़ज़लें हमारे क्रूर समय के विरुद्ध जागरण की ग़ज़लें हैं। इनमें आत्मावलोकन और आत्ममन्थन के लिए निरन्तर प्रेरित करता हुआ आत्मबल और आशावाद का सम्बल है। जीवन व अनुभव जगत के रणक्षेत्र के कोने-कोने में विशेष भूमिका में निरन्तर कटिबद्ध इस विलक्षण धनुर्धर शाइर के हर तीर का अपना ही अन्दाज़ है। साधारण शब्द भी उनकी असाधारण काव्य प्रतिभा के स्पर्श से बिम्बों, प्रतीकों, उपमाओं और रूपकों में परिवर्तित होकर सुधी पाठक पर अपना जादू जगाते हैं। इस शब्दभेदी ग़ज़लकार की अभिव्यक्ति की प्रखरता से सम्पन्न निन्यानवे ग़ज़लों के पाँच सौ अड़तालिस बहुआयामी शे'रों में व्यंजनाओं की अप्रतिम झिलमिल पर विस्मित और अभिभूत हुआ जा सकता है। अतिशयोक्ति नहीं होगी यह कहना कि शिल्प, कहन और अर्थवत्ता के एकदम नये प्रतिमान स्थापित करने वाली ये ग़ज़लें ग़ज़ल-साहित्य जगत को बहुत कुछ नया देंगी।
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