क्रान्तिकारी आन्दोलन : एक पुनर्पाठ - क्रान्तिकारी आन्दोलन सत्तावनी क्रान्ति में संगठित होकर एक बड़ी विप्लवी घटना के रूप में हमारे सामने उपस्थित है, लेकिन उसके बाद की अधिकांश घटनाएँ छापेमार लड़ाइयाँ जैसी थीं। यद्यपि वह एक व्यापक स्तर पर संगठित होकर 'काकोरी काण्ड' (1925) से पूर्व 'हिन्दुस्तान प्रजातन्त्र संघ' के गठन में हमें दिखाई पड़ता है जिसने थोड़ा आगे चलकर चन्द्रशेखर आज़ाद के सेनापतित्व और भगतसिंह के बौद्धिक नेतृत्व में 'हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातन्त्र संघ' में रूपान्तरित होकर ऐतिहासिक भूमिका का निर्वहन किया। देश की धरती पर आज़ाद और भगतसिंह की शहादत के बाद यह संघर्ष थमा नहीं, बल्कि दूरस्थ प्रदेशों में फैलता-बढ़ता हुआ नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की आज़ाद हिन्द फ़ौज और 1946 की जहाज़ियों की बड़ी बग़ावत के उस मुकाम तक पहुँचा जिसने अन्ततः साम्राज्यवाद की जड़ें हिला दीं। इस सशस्त्र युद्ध में बेगम हज़रत महल, अजीजन बाई, दुर्गा भाभी, सुशीला दीदी, कल्पना दत्त जोशी, सुनीति घोष, वीणादास जैसी महिलाओं की हिस्सेदारी को आँकने में भी प्राय: चूक हो जाती रही। आज़ादी के इस संघर्ष में पत्रकारिता का भी बड़ा योगदान था। 'चाँद', 'अभ्युदय', 'कर्मयोगी', 'भविष्य', 'स्वराज्य', 'प्रताप' विदेशी धरती पर शुरू हुए। 'ग़दर' जैसे अख़बारों ने क्रान्तिकारी संग्राम को निरन्तर उग्र किया। इस पुस्तक में ग़दर पार्टी से लेकर 1946 के नौसेना विद्रोह तक की कतिपय प्रतिनिधि घटनाओं और चरित्रों को इस आशय से लिपिबद्ध करने का प्रयास किया गया है जिससे उस दुर्लभ ऐतिहासिकता को उसकी पूरी विचार चेतना के साथ उजागर किया जा सके। रामप्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा और अशफ़ाक़उल्ला की जेल डायरी और पत्रों से यह पता लगता है कि उस भूमि का निर्माण पहले ही शुरू हो चुका था जिस पर बाद में आज़ाद और भगतसिंह ने मिलकर क्रान्तिकारी आन्दोलन की गगनचुम्बी इमारत खड़ी की। हम उस संघर्ष को वह सम्मान नहीं दे पाये जिसके वे हकदार थे और ऐसे में अधूरे छूट गये क्रान्तिकारी कार्यभार को आगे बढ़ाने का मार्ग ही अवरुद्ध हो जाता रहा। क्रान्तिकारी संग्राम के अधूरे लक्ष्यों को हासिल करना ही इतिहास लेखन का मेरा उद्देश्य है।—भूमिका से
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