कलीम आजिज उर्दू साहित्य के आधुनिक युग के प्रथम कवि हैं, जिन्हें उर्दू के एक बड़े कवि मीर का अन्दाज नसीब हुआ है। उनकी शायरी का अपना एक तेवर है। उनके अन्दर हमेशा मीर की तलाश की जाती रही है क्योंकि उनकी ग़ज़लों के तेवर न केवल मीर की बेहतरीन ग़जलों की याद दिलाते हैं, बल्कि उस सोचो गुदाज से भी अवगत कराते हैं जो मीर का ख़ास हिस्सा है। उनकी शायरी को आमतौर पर तीन दीर में विभाजित किया जा सकता है- (i) जख्मी होने का दीर (ii) जख्म देने वालों की पहचान और (iii) जख्म देने वाला एक व्यक्तित्व में सिमट आते हैं और फिर वही व्यक्तित्व तन्हा उनकी गजलों का महबूब बन जाता है। उस व्यक्तित्व में अलामतों की एक पूरी दुनिया समा गयी है।
कलीम आजिज की ग़जलों की जमीन तेलहाड़ा की उस मिट्टी से तैयार हुई है, जिसमें दूसरे लोगों के अलावा कलीम आजिज़ की माँ, बहन और परिवार के कई सदस्यों का लहू मिला हुआ है। उन्होंने वास्तव में खून में उँगलियाँ डुबोकर अपनी ग़ज़लें लिखी हैं। कलीम आजिज़ का दुख और ग्रम उनकी अपनी विशेष परिस्थिति का फल है। यही उनकी शायरी की एक ऐसी शैली है जो उनकी पहचान बनाती है।
"कोई दीवाना कहता है कोई शाहर कहता है, अपनी-अपनी बोल रहे हैं हमको ये पहचाने लोग'
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