निर्मल वर्मा से अप्रभावित रहना कठिन था और है। कुछ के लिए उनके शब्द परेशानी का सबब बने, कुछ के लिए चुप्पी । एक जमात ऐसे लोगों की थी, जो हाशिए पर रहे। निर्मल को लगातार तोलते और जाँचते-परखते हुए। जब उपस्थिति को अस्वीकार करना कठिन हो तो सवालों की शक्ल, विरोध या असहमति के बावजूद, बदल जाती है। निर्मल की एकाकी और मुलायम अभिव्यक्ति की अंतर्यात्रा पर उठाए गए सवाल देखिए। सवाल था कि आखिर निर्मल ने यह या वह क्यों नहीं कहा? इस या उस मुद्दे पर चुप क्यों रह गए ? कुछ सवाल दरअसल सवाल थे ही नहीं। इच्छा थी कि ऐसा होता तो उनके लिए निर्मल को स्वीकार करना संभव हो जाता। वह अखरते नहीं। कामना थी, 'काश, निर्मल ने यह कहा होता?' इन प्रश्नों में निर्मल का अस्वीकार कहीं नहीं है। स्पष्टीकरण चाहने जैसी इच्छा है। मुश्किल यह है कि हमारे पास उतना ही है, जो निर्मल ने कहा। जो सोचा या जो आगे कहते, उसे जानने की अब कोई सूरत नहीं है।
निर्मल की उपस्थिति और उनके व्यक्तित्व कृतित्व को खाँचे में रख दिया गया। खेमों में बाँटकर देखा गया। देखने की शर्तें जोड़ दी गईं। इस दौरान कुछ शब्द बार-बार एक ही अर्थ में इस्तेमाल किए गए। मसलन शायद, मगर पर, लेकिन, कुल मिलाकर, ले-देकर। निर्मल पर कहा गया हर वाक्य दो हिस्सों में तोड़ दिया गया। एक साँस में कहे गए वाक्य के बीच में इन्हीं में से एक शब्द आ गया। जैसे सारा वजन उसी शब्द पर हो। सबसे महत्त्वपूर्ण हो। ऐसे में कुछ के लिए वाक्य का पूर्वार्द्ध मानीखेज रहा, कुछ के लिए उत्तरार्द्ध । उपस्थिति से शुरू हुई बहस अनुपस्थिति तक जारी रही।
ऐसी किसी बहस को न तो उपस्थिति प्रेरित करती है, न ही अनुपस्थिति उस पर विराम लगाती है।
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