जिन्दगी को करीब से देखने के लिए अनुभव की आँखें चाहिए और अनुभव को सर्जनात्मक ऊँचाई देने के लिए संवेदना के तंतु । यदि सृजन करने वाला सर्जन (शल्य चिकित्सक) भी हो तो कई नए बिम्ब और अभिव्यक्ति के कई अनछुए पहलू सामने आ सकते हैं। डॉ. लोकेन्द्र सिंह का यह कविता संग्रह इस मामले में विशिष्ट है कि जिन्दगी और मौत को बहुत करीब से महसूस कर इन रचनाओं का सृजन हुआ है। कहते हैं, कल्पना और यथार्थ की हदें कविता में मिट-सी जाती हैं। डॉ. लोकेन्द्र सिंह ने यथार्थ की ठोस मरुभूमि पर कविता को सम्भव करने का जोखिम उठाया है। किसी भी डॉक्टर के लिए मरीज एक ऑब्जेक्ट होता है-महज एक व्याधिग्रस्त शरीर । किन्तु इस संग्रह की कविताओं और ग़ज़लों में मरीज स्वेद-अश्रु-रक्त-मज्जायुक्त एक ऐसी इकाई है जिसकी मनःस्थितियों के साथ कवि सहयात्रा करता है। ओ.पी.डी., ओ.टी., बूँदें जीवन की (ड्रिप), सफेद कोट की व्यथा, सूई और तलवार तथा सृजन का धागा जैसी कविताएँ विस्मित करती हैं कि अब तक ये विषय अनछुए कैसे रह गये। जिस तरह मरीज आशा-निराशा के बीच झूलता है, उसी तरह डाक्टर के मन में भी फिनिक्स की मानिंद, जी उठता है ईश्वर का अहसास। कवि के पारिवारिक, सामाजिक सरोकार भी जगह-जगह उभर कर आए हैं-जब सफेद कोट की मोटी कीमत कोई भरेगा/ तब सफेद कोट से जमकर वो व्यापार करेगा। या फिर बोन्साई में-वृक्ष हो या मनुष्य, जड़ कट जाने पर, बौना हो, सत्ता के किसी दलाल की बैठक में सज जाता है। यह संग्रह पाठकों के लिए कम से कम दो वजहों से महत्त्वपूर्ण है : एक ख्यातिप्राप्त शल्य चिकित्सक के सर्जक-कवि बनने की दृष्टि से और दो, बीमारी या मौत जैसे सबसे कमजोर क्षणों की संवेदना से रू-ब-रू होने के एक मानवीय उपक्रम के लिए।
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