संचयन सबके राम प्रयोजनपूर्वक है। हम सबके अपने राम हैं और हम अपने राम को ही कुछ ज़्यादा अच्छी तरह जानते हैं। राम केवल हमारे राम तक सीमित नहीं हैं। उनके सम्बन्धों का दायरा बहुत बड़ा है, भारतीय मनीषा ने उनके कई रूपों का सृजन किया है। यहाँ प्रयोजनपूर्वक आग्रह यह है कि हम अपने राम के साथ दूसरों के राम को जानें-पहचानें और समझें। यदि हम शिव के उपासक हैं और शिव के राम से हमारा अपनापा है, तो हम हनुमान के राम से भी अवगत हों। यदि भरत के राम से हमारा परिचय है, तो हम शबरी और अहल्या के राम को भी अच्छी तरह जानें। राम के चरित्र के विविध रूपों का यह आकलन अलग-अलग रुचियों, पहचानों और सरोकारों के विद्वानों ने किया है, इसलिए यहाँ राम के रूपों का वैविध्य है। राम के विभिन्न रूपों से सम्बन्धित इन सभी आलेखों में एक बात समान है वह यह धारणा और विश्वास कि राम का चरित्र विलक्षण है और यह सदियों से हमारे लिए आचार-विचार का मानक और आदर्श है। राम का चरित्र भारतीय मनीषा की अद्भुत सृष्टि है। भारतीय मनीषा सदियों से इस चरित्र में नये-नये आयाम जोड़ती आयी है । वाल्मीकि ने राम के चरित्र को उच्चादर्शों से जोड़कर इसे आचरण के आदर्श पुरुष का पूज्य रूप दिया। बाद में भक्ति आन्दोलन के दौरान तुलसी ने राम के चरित्र को भाषा में लिखा और यह इतना लोकप्रिय हुआ कि यह जनसाधारण के जीवन में सम्मिलित हो गया ।
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राम के चरित्र की सबसे उल्लेखनीय विशेषता उनका 'मर्यादित' व्यक्तित्व है। वे मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। भारतीय मनीषा जानती है कि एक अच्छे, सभ्य और सुसंस्कृत समाज की निरन्तरता तब सम्भव है, जब सभी लोग मर्यादाओं के अधीन रहकर अपना जीवन यापन करें। राम की सोच और व्यवहार में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो समाज के नियत विधि-विधानों के दायरे से बाहर का हो । राम का चरित्र इस प्रकार का है कि यह आग्रहपूर्वक अपने को परम्परासम्मत और मर्यादित रखता है। आज कुछ लोगों के लिए परम्परासम्मत होना दक़ियानूसी है, लेकिन यह समाज की व्यवस्था और अनुशासन या जिसे रामराज्य कहते हैं, उसकी बुनियाद है। परम्परा के साथ होना प्रतिगामी होना नहीं है । परम्परा हमारे सदियों के अनुभव और अभ्यास से बने मूल्यों का जीवन्त समूह है और इसके साथ होने का मतलब अपने को निरन्तर जीवन्त और अद्यतन रखना है । परम्परा राम के आचार-विचार में जीवन्त है- यह उनकी वाणी में है, और यह उनकी जिह्वा पर है। जब वे कुछ कहते हैं, तो लगता जैसे परम्परा जीवन्त रूप में अपना मन्तव्य हमारे सामने रख रही हो। यह परम्परा ठहरी हुई परम्परा नहीं है, यह गतिशील और जीवन्त परम्परा है। परम्परा यदि ठहर जाये, तो फिर यह अपने अर्थ और अभिप्राय से विचलित लगती है।
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