कगार की आग - घास-फूँस के टूटे कच्चे घर! आकाश की झीनी छत! धरती पर कच्ची मिट्टी की मैली चादर! दो जून रूखी-सूखी मिल पाना भी मुश्किल…! मर-मरकर जीने वालों की यह व्यथा-कथा आज का युग-सत्य भी है, कहीं ये रंगहीन/रंगीन चित्र किसी के रक्त से खिंची यन्त्रणा की रेखाएँ हैं। नाखूनों से कुरेदा हुआ अभिशप्त मानव का इतिहास। आग की तपिश ही नहीं, इसमें हिम का दाह भी है। अनुभव की प्रामाणिकता और अनुभूति की गहनता ने इस कालजयी कृति को एक नया आयाम दिया है। यही इसकी सबसे बड़ी विशेषता है शायद। बर्फ़ीले पर्वतीय क्षेत्र की इस कथा में एक अंचल विशेष की धरती की धड़कन है, एक जीता-जागता अहसास भी। गोमती, पिरमा, कुन्नू के माध्यम से सन्त्रस्त मानव समाज के कई चित्र उजागर हुए हैं। इसलिए यह कुछ लोगों की कहानी, कहीं 'सबकी कहानी' बन गयी है—देश-काल की परिधि से परे। डोगरी, ओड़िया, पंजाबी, मराठी, बांग्ला, नेपाली, बर्मी, चीनी, नार्वेजियन, अंग्रेज़ी आदि में इसके अनुवाद हो चुके हैं। 'आकाशवाणी' से धारावाहिक प्रसारण एवं रंगमंच के माध्यम से नाट्य रूपान्तरण भी। आस्ट्रेलिया तथा इटली के विश्वविद्यालयों में पाठ्यपुस्तक के रूप में भी यह वर्षों तक पढ़ाई जाती रही है। इस पर प्रसार भारती द्वारा एक फ़िल्म बनाई जा रही है। साहित्य का अर्थ सत्य है तो इससे बड़ा सत्य और क्या होगा? एक चुभती हुई यन्त्रणा, टूटे काँटे की अनी की तरह, जो निरन्तर कसकती रहे।
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