'गंगा' शब्द मात्र सुन कर मन में दिव्य शुचिता और पावनता का भाव उमड़ने लगता है। वे देव लोक और पृथ्वी दोनों जगह सबको आप्यायित करती हैं। गंगा की महिमा का गान भारत के इतिहास, पुराण और साहित्य में ही नहीं, बल्कि लोक मानस में भी निरन्तर गूँजता रहा है। जहाँ गंगा के तट पर सदियों से जाने कितने ध्यानी. ज्ञानी, सन्त और महात्मा साधना करते आये हैं. वहीं गंगा की तरंग ने कवियों की कल्पना को भी तरंगायित कर काव्य सृजन को जन्म दिया है। निर्मल गंगा-जल अपनी पवित्रता और औषधीय गुण से युक्त होने के कारण तन-मन के स्वास्थ्य संवर्धन का साधक भी है। अतः गंगा असंख्य भारतीयों के लिए माँ है और भारतीय मन अपनी माता का सान्निध्य पाने के लिए मचलता रहता है। हममें से बहुतों के लिए गंगा स्नान सदैव एक तृप्तिदायी अनुभव होता है। गांवों में 'नहान' जीवन का एक दुर्लभ अवसर माना जाता है, जब अमीरी, गरीबी, ऊँची और नीची जाति आदि के सारे भेदों को धता बताते हुए सब के सब गंगा में डुबकी लगा कर अपने को धन्य मानते हैं। इसका एक विशेष रूप 'कुम्भ' पर्व के विराट आयोजन के अवसर पर दिखता है, जो बारह वर्ष के अन्तराल पर सदियों से होता आ रहा है। कुम्भ के पुण्य अवसर पर प्रयाग में गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम पर स्नान के अवसर की कामना लिए लोग सालोंसाल तैयारी करते रहते हैं। साथ ही उपयुक्त मुहूर्त में हरिद्वार, नासिक और उज्जैन की धर्म नगरियों में भी कुम्भ का स्नान सम्पन्न होता है, जहाँ लोग जुटते हैं। कुम्भ का पर्व धार्मिक उत्सव होने के साथ ही देश की भावनात्मक और सांस्कृतिक एकता का भी एक प्रमुख आधार है।
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