नवगीत भारतेन्दु युग से चली आती उस गीत परम्परा की संज्ञा है जो प्रारम्भ से ही लोक-जीवन से संयुक्त थी और युगीन बोध से उत्तरोत्तर परिपुष्ट होती रही। छायावाद-युग में भक्तिकालीन पद-गीत का स्थान स्वच्छन्दतावादी गीत शैली ने ले लिया जो अंग्रेजी के रोमांटिक कवियों-वर्ड्सवर्थ, शेली, कीट्स, बायरन आदि के गीतों से अनुप्रेरित थी। इस शैली के गीतों का लोक-जीवन की यथार्थ स्थितियों से कोई सरोकार नहीं था। छायावादी गीत बहुपठित समाज की मानसिकता वाले तथा भारतीय पुनर्जागरण की प्रवृत्तियों से प्रभावित शिष्टवर्गीय कवियों की देन थे।
वास्तव में जिस नवगीत का उत्स निराला से ढूँढ़ा जाता है उसे गति देने का प्रारम्भिक कार्य नई कविता के सप्तकीय कवियों ने ही किया। ऐसे कवियों में रामविलास शर्मा, गिरिजा कुमार माथुर, 'अज्ञेय' तथा सप्तकेतर कवियों में रांगेय राघव, केदारनाथ अग्रवाल, शिवमंगल सिंह 'सुमन', नागार्जुन और त्रिलोचन के नाम लिए जा सकते हैं। नई कविता के डॉ. धर्मवीर भारती, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, कुँवरनारायण, केदारनाथ सिंह और नरेश मेहता ने भी पारम्परिक गीतों को नकारते हुए नए ढंग के गीत लिखे ।
गीत मनुष्य की एक स्वाभाविक अभिव्यक्ति का नाम है। आदिम अवस्था में भी अत्यन्त प्रसन्नता में मनुष्य के हृदय में गीत अवश्य निकले होंगे। उल्लास और वेदना दोनों ही मनुष्य के मुख से अभिव्यक्त भाषा में परिवर्तन कर देते हैं। इन दोनों दशाओं में मनुष्य की भाषा असामान्य शब्दों से रंजित होकर लयात्मक हो उठती है। रोना और गाना दोनों ही मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्तियाँ हैं। गीत सहज ढंग से गाए गए होंगे और बाद में क्रमशः वे राग-रागनियों और छन्दों के साँचे में ढलते चले गये होंगे। राग-रागनियों से सज्जित गान को संगीत कहा गया है और छन्द-बद्ध गेय रचनाओं को गीत । इस दृष्टि से भारत में गीत का प्रारम्भ ऋग्वेद के मन्त्रों से ही ढूँढ़ा जाता है। वैदिक काल में गीत काव्य की दृष्टि से विविधता थी- स्तुतिगीत, अभिचारगीत, गोचारणगीत आदि कई रूप थे।
नई कविता और नवगीत में केवल 'फार्म' का अन्तर नहीं है, बल्कि दोनों की दृष्टि और चिन्तन की दिशा भी भिन्न रूप में विकसित हो रही थी। नई कविता के कुछ समर्थ रचनाकारों ने भी नवगीतकारों की ही तरह आंचलिकता और लोक-संवेदना को ग्रहण किया, पर उनकी मूल चिन्तन दृष्टि पाश्चात्य विचारकों से आयातित 'अस्तित्ववाद' आदि के दर्शन पर आधारित थी। वे जिस टूटन, कुंठा और संत्रास के चित्र खींच रहे थे, वह योरोपीय और अमरीकी कवियों की नकल पर आधारित था । अतः उसमें यथार्थगत जीवन्तता भी नहीं थी और साथ ही भारतीय जीवन की सम्पृक्तता भी नहीं थी । अधिकांश नई कविता महानगरीय और नगरीय जीवन के मध्यवर्गीय समाज से सम्बद्ध थी जबकि पचासी प्रतिशत भारत गाँवों में निवास करता है। ऐसी स्थिति में नई कविता का किला ध्वस्त होना ही था और उस दिशा में 'नवगीत' ने भारतीयता को केन्द्र में प्रतिष्ठित करके जिस यथार्थ आधुनिक बोध को अपनाया, उसने नई कविता को अनेक खेमे में बिखरकर समाप्त होने की ओर अग्रसर कर दिया।
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